बुधवार, 3 दिसंबर 2014

पाकिस्तान की सौतनें

रफ़्तारwww.hamarivani.com
फिल्म बॉबी में एक गीत है- ''झूठ बोले कव्वा काटे, काले कव्वे से डरियो, मैं मायके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो।" इस गाने में मर्द तरह-तरह की धमकियां देकर औरत को मायके जाने से रोकता है। मैं ये करूंगा तुम देखती रहियो, मैं वो करूंगा तुम देखती रहियो, वगैरह। मगर नायिका किसी धमकी से डरती ही नहीं, बल्कि नायक को माकूल जवाब देती है। मगर जैसे ही वह इस धमकी पर आता है, 'मैं तेरी सौतन लाऊंगा, तुम देखती रहियो", तो अचानक गाने की धुन बदल जाती है। नायिका नायक के पैरों में बैठकर माफी मांगती सी कहती है, 'तू दूजा ब्याह रचाएगा, हाय मेरी सौतन लाएगा, मैं मायके नहीं जाऊंगी, मैं मायके नहीं जाऊंगी।" विट्ठल भाई पटेल का लिखा यह गीत एक प्रचलित लोकगीत पर आधारित है, अत: इसमें उस समय के भारतीय समाज के एक तीखे सच की झलक है। हमारे यहां बादशाहों के ही नहीं सभी राजाओं के भी हरम रहे हैं। सेठ-साहूकारों की एक से अधिक पत्नियां रही हैं। औरत विधवा हो जाए तो जीवनभर हंसना-बोलना भी मना हो जाना और पुरुष विधुर हो जाए तो चाहे तो महीने भर में ही दूसरी बीवी लाने का हक रखना। वह भी कुंवारी और उम्र में अपने से आधी-पौनी! एक स्त्री के रहते हुए दूसरी से संबंध रखना, वह भी हक के साथ और विवाहित पत्नी के पास रोने-बिसुरने और स्वीकार कर लेने के अलावा कोई चारा न था। विरोध करने का तो सवाल ही कहां उठता था। मगर भारत में यह स्थिति काफी कुछ बदली है। भारत के एक बड़े समुदाय की स्त्रियों के पास यह कानूनी हक है कि उनका पति एक साथ दो पत्नियां न रखे। वे चाहें तो शिकायत कर सकती हैं। दूसरा, अब अधिक से अधिक स्त्रियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हो रही हैं अत: विरोध करने की ताकत उनके पास है।
इन दिनों जिंदगी चैनल पर लोकप्रिय पाकिस्तानी सीरियल आ रहे हैं। वे बड़ी खूबसूरती से बनाए गए हैं। हमारे यहां के धारावाहिकों की तुलना में वे काफी बेहतर हैं। उसकी कई वजहें हैं। हमारे यहां के सीरियल, विज्ञापन मिलते जाने के साथ ही, चबाई हुई चुइंगम की तरह लंबे खींचे जाते हैं, कहानी क्या से क्या बना दी जाती है। कहानियां और पात्र अतिशयोक्तिपूर्ण और नाटकीय होते हैं, असल जीवन का प्रतिबिंब नहीं होते। अत: यह छोटे पर्दे पर लिखा साहित्य नहीं टाइम स्लॉट में भरा जाने वाला बेतुका कचरा अधिक होता है। वहीं पाकिस्तानी धारावाहिक निश्चित एपिसोड तय करके बनाए होते हैं जैसे तेईस या छब्बीस। कहानीकार ने जो लिखी वही कहानी होती है। पाकिस्तान का वर्तमान समाज, उसका व्यवहार, उसके चलन, किरदारों का मनोविज्ञान आदि बड़ी सूक्ष्मता से इन धारावाहिकों में उकेरा जाता है। इसके साथ ही आप रूबरू होते हैं पाकिस्तान की औरतों की स्थिति से। वहां पुरुष एक से अधिक शादी करने का कानूनी हक रखता है सो उनकी भाषा में कहें तो वह कभी भी 'पत्नी पर सौत बैठा सकता है।" छोटी-मोटी गलती पर आदमी पत्नी को धमकी देता है कि वह उसे छोड़ देगा, क्योंकि वहां एकतरफा तलाक भी हो जाता है। आदमी जब चाहे तलाक दे देता है, मुंह से बोलकर या तलाकनामा भेजकर। वहां औरत को इसे मंजूर न करने का अधिकार नहीं है। अक्सर स्त्री पात्र गिड़गिड़ाती हुई मिलती है कि मुझे छोड़ना मत, मैं कहां जाऊंगी? वैसे एक को छोड़े बगैर भी दूसरी स्त्री तो लाई ही जा सकती है। इस नाइंसाफी के बाद भी स्त्री का दर्द समझने के बजाय उसके द्वारा सौतन से बहनापा रखने की उम्मीद की जाती है। ग्लानि महसूस करना तो दूर पुरुषों की तरफ से जुमले उछाले जाते हैं कि दूसरी शादी करना कोई गुनाह नहीं! ठीक है कि आपने कानून ऐसे गढ़ रखे हैं कि पुरुषों को विशेष छूट मिल जाए, मगर भावनाओं का क्या किया जाए? कानूनी तौर पर कितना ही जायज हो, पति द्वारा दूसरी औरत लाने पर बीवी को गहरी भावनात्मक ठेस तो पहुंचती ही है। उधर जो दूसरी बीवी बनकर आती है उसके लिए भी कम मुसीबत नहीं होती क्योंकि वहां अक्सर कोई औरत दूसरी औरत इसलिए बनती है कि पाकिस्तानी समाज में अकेली औरत का न कोई मुकाम है न कोई आर्थिक-आत्मनिर्भरता। उसे आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के लिए शादी ही करना होती है। फिर चाहे उसे छत देने वाला पुरुष पहले से विवाहित या उम्र में उससे दुगुना हो। आत्मनिर्भर सिंगल वुमन की अवधारणा वहां काम करती दिखाई नहीं देती। मर्द आधारित समाज व्यवस्था आमतौर पर स्त्री को कम-पढ़ा लिखा और आर्थिक आत्मनिर्भरता से वंचित रखती है। औरत को गुलाम बनाए रखने की यह साजिश काम कर जाती है जब अपने से आधी उम्र की लड़की से शादी करके पुरुष ऊपर से एहसान जताता है, अपनी महानता का गुणगान करता है कि उसने तो एक लड़की को आसरा दिया है और पहली बीवी इतनी संगदिल है कि 'उस बेचारी" के प्रति रुखाई बरतती है! यानी जो छली जाती है वह तो औरत ही होती है चाहे ये हो चाहे वो। इन सीरियलों में पुरुष को सही साबित करने के लिए पहली पत्नी बुरे स्वभाव की और बाद वाली पत्नी सही बताई जाती है, ताकि कानूनी रूप से जायज दूसरी शादी को भावनात्मक और सामाजिक रूप से भी जायज बताने का षड्यंत्र जारी रखा जा सके। पाकिस्तान के लगभग सभी सीरियल सौतनों से भरे पड़े हैं क्योंकि उनके समाज का सच भी यही है। इन सीरियलों के बहाने पाकिस्तान के समाज को भीतर से देखने का मौका मिल रहा है। पाकिस्तान की आम स्त्री हर पल असुरक्षा में जीती है। आत्मनिर्भर स्त्रियां भी वहां हैं मगर हमारे यहां से बहुत कम क्योंकि उस समाज का मिट्टी पानी उन्हें फलने-फूलने की इजाजत नहीं देता। इन स्त्रियों को देखकर प्रसिद्ध गीतकार साहिर लुधियानवी के एक गीत 'औरत ने जनम दिया मर्दों को..." का एक हिस्सा याद आता है-
'मर्दों के लिए हर जुल्म रवां, औरत के लिए रोना भी खता
मर्दों के लिए लाखों सेजें, औरत के लिए बस एक चिता
मर्दों के लिए हर ऐश का हक, औरत के लिए जीना भी सजा।"
-देखना है अब कौन-सी मलाला पाकिस्तान की स्त्रियों को सौतनों से छुटकारा दिलाने आती है।
-निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

इश्‍क, ममता और धोखा

www.hamarivani.com रफ़्तार

जब आप सोचते हैं 'मां' तो आपके जेहन में सिर्फ अपनी मां की छवि ही नहीं उभरती बल्कि उसका निस्‍वार्थ प्रेम, अगाध ममता, नन्‍हे-नन्‍हे मगर बेशकीमती त्‍याग जैसी बातें भी मूर्त रूप में आ जाती हैं, आकार लेने लगती हैं। इंसान कितना भी बड़ा हो जाए, चोट लगने पर मुंह से सबसे पहले 'उई मां' ही निकलता है। मां का अर्थ ही होता है सुरक्षा। मां का प्‍यार व्‍यक्ति को गहरी भावनात्‍मक सुरक्षा देता है। मां यानी विश्‍वास। वह हर कीमत पर अपनी औलाद के विश्‍वास की रक्षा करती है। यदि आपने उससे कुछ गोपनीय बांटा है, तो वह उसे कभी किसी से नहीं कहेगी, भले ही वह गरल हो, तो वह उसे गले में रख लेगी, नीलकंठ हो जाएगी मगर उगलेगी कभी नहीं। मां से बड़ा विश्‍वासपात्र कोई नहीं होता। नन्‍हा बच्‍चा भी अपनी दैनंदिन की हर चखर-चखर मां से ही करता है। मगर कभी मां ही मन को चोट पहुंचाए तो?

     हाल ही में एक फिल्‍म देखी 'हैदर।' यह फिल्‍म शेक्‍सपीयर के प्रसिद्ध नाटक 'हेमलेट' पर आधारित है। नाटक में हेमलेट डेनमार्क का राजकुमार था। यहां हैदर आतंकवाद से ग्रसित कश्‍मीर का एक बेटा। लेकिन अलग पृष्‍ठभूमि के बावजूद फिल्‍म की कहानी वही है, जो हेमलेट की थी। प्रिंस हेमलेट अपने पिता (किंग हेमलेट) से अथाह प्रेम करता है। मगर किंग की हत्‍या हो जाती है। इसके तुरंत बाद किंग की पत्‍नी यानी प्रिंस हेमलेट की मां किंग के भाई क्‍लॉडियस से शादी कर लेती है जो कि नया राजा बन गया है। पिता का भूत प्रिंस हेमलेट को बताता है कि उसकी यानी किंग की हत्‍या उसके भाई क्‍लॉडियस ने ही की थी। अपने प्रिय पिता के हत्‍यारे के साथ मां की मुहब्‍बत प्रिंस हेमलेट के दिमाग को इतना उलझा देती है कि वह दिमागी संतुलन खो बैठता है। हैदर के साथ भी यही होता है। पिता के गायब होने के तुरंत बाद जब वह घर लौटता है तो अपनी मां को चाचा के साथ हंसते और गाते, बेहद प्रसन्‍न पाता है। उसे षड्यंत्र की बू आती है और शक होता है कि उसके पिता के गायब होने में चाचा के साथ मां भी शामिल है। वह इस दिल तोड़ देने वाले और मनावैज्ञानिक तौर पर निचोड़ देने वाले एहसास से लड़ ही रहा होता है कि रूहदार नामक व्‍यक्ति (यहां भूत के बजाय पिता का सहबंदी) बताता है कि हैदर का पिता मार दिया गया है और उसका मुखबिर और प्रकारांतर से उसका कातिल उसका चाचा ही है। हैदर दुख से पगला जाता है। एक तो प्रिय पिता के कत्‍ल का दुख, लेकिन उससे भी बड़ा दुख यह प्रतीति कि मां भी इसमें शामिल रही।
     चार सौ साल पहले लिखा गया नाटक आज भी प्रासंगिक है, क्‍योंकि इंसानी मनोविज्ञान वेसा ही दुरूह और जटिल है, जैसा पहले था। कभी-कभी इंसान एक ही व्‍यक्ति के प्रति प्रेम और नफरत के हिंडोले में झूलता है। हेमलेट के साथ भी यही कशमकश है। जो उसकी मां है, वही पिता के कातिल की प्रेयसी भी। अब इंसान का दिमाग क्‍या करे? प्‍यार या नफरत? दोनों एक साथ हो नहीं सकते। अत: संतुलन बिगड़ जाता है। हैदर की त्रासदी तो इससे भी आगे है। मां का अर्थ होता है विश्‍वास। तो जब मां ही धोखा दे दे तो क्‍या हो? आदमी डिसफंक्‍शनल हो ही जाएगा। वहीं हैदर की मां की त्रासदी यह है कि उसने पति के कातिल से मुहब्‍बत जरूर की है मगर पति का कत्‍ल नहीं किया है। वह अनजाने में मोहरा बनी है। वह प्रेमी से इश्‍क जरूर करती है, मगर बेटे को भी बहुत चाहती है, खुद से और प्रेमी से भी ज्‍यादा, मगर शक से बौराए बेटे को यकीन दिलाने में नाकामयाब रहती है।
     रिश्‍तों की ये गुत्थियां पहले भी थीं, अब भी हैं। धोखे तो बहुत से होते हैं दुनिया में, मगर जब कोई अपना ही विश्‍वास की कसौटी पर खोटा निकल जाए तो वही भावनात्‍मक त्रासदी होती है जो हैदर उर्फ हेमलेट के साथ हुई थी। 
                                                                  -निर्मला भुराड़िया 

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

शुभ संकेत

www.hamarivani.com रफ़्तार
शुभ संकेत

आज बॉक्सर मेरी कॉम को कौन नहीं जानता। अब तो उनकी जीवनी पर फिल्म भी बन कर रिलीज हो चुकी है। इससे हम बॉक्सिंग के क्षेत्र में उनकी उपलब्ध्ाियों के बारे में ही नहीं उनके जीवन के अन्य पहलुओं के बारे में भी जान रहे हैं। बॉक्सिंग को लेकर उनका नैसर्गिक रुझान, उनकी प्रतिभा, उनकी लगन, बल्कि यूं कहें कि उनका जुनून सब कुछ बेहद प्रेरणादायी है। साथ ही उनका संघर्ष, हवा के खिलाफ टिके रह कर जो ठान लिया वह कर गुजरने का माद्दा भी जानने लायक है। इससे संघर्ष कर रहे अन्य लोगों को भी बल मिलता है। मगर मेरी कॉम के संघर्ष, जुनून और सफलता की इस कहानी में सर्वाध्ािक उल्लेखनीय और प्रेरणादायक कोई बात है तो वह है उनके पति द्वारा अतुलनीय सहयोग की गाथा। हालांकि फिल्म माध्यम में तथ्यों को थोड़ा उभार कर बताना होता है, मगर आखिर तो यह एक जीवनी ही है और सत्य के आध्ाार पर ही बुनी गई है, अत: ये सच है कि मेरी कॉम की सफलता में उनके पति का बहुत बड़ा हाथ है। यूं विवाह के पूर्व ही मेरी की मेहनत ने रंग दिखाना शुरू कर दिया था पर साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि ओलिम्पिक के मैडल सहित, मेरी कॉम की बहुत सी बड़ी सफलताएं शादी और बच्चे होने के बाद की हैं। एक खिलाड़ी महिला के लिए यह कैसी कठिन चुनौती है, यह समझा जा सकता है। मेरी के पति स्वयं एक फुटबॉल खिलाड़ी हैं, मगर मेरी की तूफानी प्रतिभा और बॉक्सिंग के प्रति जबरदस्त पैशन को समझते हुए उन्होंने अपना कैरियर छोड़कर घर और बच्चों को सम्हाला और मेरी को अपने उच्चतम मुकाम पर पहुंचने देने के लिए राह बनाई। वह भी साध्ाारण लालन पालन नहीं। इस बीच दो में एक बच्चा गंभीर रूप से बीमार भी हुआ। यह एक दुर्लभ उदाहरण है क्योंकि मेरी के पति ने सिर्फ पत्नी का सहयोग ही नहीं किया पत्नी के लिए त्याग भी किया। भारतीय पुरुषों में बचपन से ही पालित-पोषित अहं को भी उन्होंने बीच में नहीं आने दिया और यह समझने की कोशिश की कि वे दोनों ही खिलाड़ी हैं तो क्या उनकी पत्नी की प्रतिभा और जुनून दोनों ही उनसे ज्यादा हैं अत: घर के लिए खेल उन्हें छोड़ना चाहिए पत्नी को नहीं। जिस देश में जेंडर के हिसाब से यह तय होता हो कि त्याग कौन करेगा वहां मेरी कॉम के पति की मिसाल बहुत बड़ी है।
मेरी कॉम पर बनी बायोपिक देखकर यकायक कई किस्से याद जाते हैं। मीना कुमारी और कमल अमरोही दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। मगर मीना कुमारी चूंकि अभिनेत्री थी अत: अध्ािक प्रकाश में थीं। यदि कमाल अमरोही का परिचय कोई यह कह कर करवा दे कि ये मीना कुमारी के पति हैं तो उन्हें बुरा लग जाता था। एक बार मीना स्टेज पर गईं और अपना पर्स सीट पर भूल गईं तो अमरोहीजी ने दोस्तों के याद दिलाने के बावजूद उसे उठाया नहीं बल्कि यह कहा कि क्या मैं बीवी का पर्स उठाऊंगा? सुनते हैं जोहरा सहगल के पति ने इसीलिए आत्महत्या कर ली थी कि जोहरा उनसे काफी आगे निकल गई थीं। आखिर ऐसे लोग क्यों होते हैं जो पत्नी की सफलता पर गर्वित होने के बजाए चोटिल हो जाते हैं, उनके अहं को ठेस पहुंच जाती है?
फिल्म 'खेल-खेल" के एक गाने की पंक्ति है, 'ये भी जोड़ी है कैसी निराली, पीछे लाला चले आगे लाली।" गाने में पत्नी आगे और पति पीछे को अजीब इसलिए माना गया है कि हमारे समाज में यह अलिखित नियम रहा है कि पति आगे और पत्नी पीछे चलेगी। पति उम्र में बड़ा, पत्नी छोटी होगी। पति पत्नी को चाहे तू कह कर पुकारे वह तो उसे आप ही कहेगी। देखा जाए तो यह भी एक सामाजिक अपेक्षा ही है कि पुरुष का स्त्री से अध्ािक सफल होना जरूरी है। इस थोपी गई अपेक्षा का पुरुषों पर बहुत दबाव रहता है। यही अपेक्षा पुरुष मन पर यह मनौवैज्ञानिक प्रभाव भी छोड़ती है कि पत्नी की सफलता पर वह हीनता महसूस करने लगता है। यह पुरुष के दिमाग की उपज नहीं समाज के रवैए का बोया बीज है। पत्नी की सफलता से वह इसलिए परेशान होता है कि 'लोग क्या कहेंगे?"
मगर ध्ाीरे-ध्ाीरे ही सही हमारे समाज में और पुरुषों की मानसिकता में भी इस संदर्भ में तेजी से परिवर्तन रहा है। एक दूसरे को तू और आप में किया जाने वाला संबोध्ान दोनों द्वारा ही एक दूसरे को तुम कहे जाने से सम पर गया है। ऐसे बहुत से पुरुष हैं जो अपनी पत्नी की सफलता पर गर्वित होने लगे हैं और आगे बढ़ कर उसका परिचय कराते हैं। पत्नी को रोकने के बजाए उसको आगे बढ़ने में सहयोग करने वाले भी अब दिखने लगे हैं क्योंकि हमारा सामाजिक वातावरण भी बदला है। वैसे व्यक्तिगत तौर पर भी कुछ लोग संकीर्ण और अहंवादी होते हैं और कुछ लोग उदार। आत्मविश्वास से भरपूर ये दूसरे वाले लोग पत्नी की प्रगति से हीनता बोध्ा नहीं, गर्व महसूस करते हैं। मेरी कॉम के पति ने सिर्फ सहयोग ही नहीं, त्याग भी किया। कम ही सही, ऐसी मिसालें भी अब भारतीय समाज में दिखने लगी हैं। यह एक शुभ संकेत है।

निर्मला भुराड़िया


सोमवार, 29 सितंबर 2014

हृदयहीन व्यापारी बेच रहे, जीती-जागती बच्चियां

www.hamarivani.com रफ़्तार

हाल ही में यशराज फिल्म्स के बैनर से एक फिल्म रिलीज हुई है- मर्दानी! यह कहानी है उन मासूम किशोरियों की जो दुष्टों द्वारा अगवा कर बेच दी जाती है; देह व्यापार में जबरन ध्ाकेल दिए जाने के लिए। इस नर्क में कीड़ों की तरह गिलबिलाने को मजबूर इन बच्चियोंं पर इस तरह जुल्म ढाए जाते हैं कि आपके रोंगटे खड़े हो जाएं। मगर वे शातिर अपराध्ाी जो इन लड़कियों की पीड़ा के जरिए ध्ान कमाते हैं उनमें दिल होता है आत्मा। बेमुरव्वत होकर वे बच्चियों की तस्करी करते हैं। फिल्म में रानी मुखर्जी क्राइम ब्रांच की इंस्पेक्टर हैं। वे पूरे दम-खम और संकल्प के साथ इन अपराध्ाियों के पीछे पड़ जाती हैं और उन बेबस बच्चियों को गुंडों के चंगुल से छुड़ाकर ही दम लेती हैं। इस फिल्म में निश्चित ही एक अच्छा संदेश है, नायिका द्वारा अपराध्ाियों से
लड़ने का प्रेरित करने वाला माद्दा है, साथ ही  आंखें खोल देने वाले दृश्य भी हैं जो बताते हैं कि मासूम बच्चियों के साथ क्या-क्या हो सकता है। इसीलिए कुछ राज्यों में इस फिल्म को मनोरंजन कर मुक्त किया गया है, जिनमें मध्यप्रदेश भी है। दूसरी ओर विडम्बना यह है कि सेंसर बोर्ड ने इसे '" सर्टिफिकेट दे दिया है इससे इसे वे मासूम किशोरियां नहीं देख पाएँगी जिन्हें इस जानकारी, इस एक्सपोजर की जरूरत है कि ये दुनिया कैसी है?
पर्दे के बाहर की दुनिया में भी मानव-तस्करी का जाल फैला हुआ है। फिल्मी कहानी में तो सिर्फ अगवा की हुुई बच्चियों की दास्तान थी, मगर सचमुच की दुनिया में लड़कियां सिर्फ अगवा ही नहीं की जाती बल्कि और भी तरीकों से बहलाई, फुसलाई, जाल में फंसाई, बेची और देह व्यापार में ध्ाकेली जाती हैं। रुपहले पर्दे पर उनके लिए जी-जान से लड़ने वाली एक नायिका भी थी। मगर व्यवहारिक जीवन में अपराध्ा के खिलाफ
लड़ने वाला सिस्टम इतना मजबूत है इतनी इच्छाशक्ति वाला। बल्कि सिस्टम की नाक के नीचे अपराध्ाी पलते हैं। अत: असल दुनिया में जरूरी है व्यवस्था में सुध्ाार के साथ ही जनता, समाज, परिवार और लड़कियों का अध्ािक जागरूक और अध्ािक सतर्क होना। लड़कियां कई तरहों से दुष्टों के जाल में फंस जाती हैं। जैसे गरीब लड़कियों को नौकरी का झांसा देकर अपने गांव-घर से बाहर लाया जाता है और बेच दिया जाता है। शिक्षा और जागरूकता से दूर निधर््ान और भोले मां-बाप इतना भी नहीं समझ पाते कि इंसान के रूप में भेड़िए उनके पास आए हैं। इसी तरह गरीबी के साथ अंध्ाविश्वास भी यही काम करता है। अंध्ाविश्वासों की ही वजह से दक्षिण में देवदासी परंपरा अब तक नहीं मिटी है बल्कि अब तो मंदिर भी बहाना नहीं रहा,
लड़कियां सीध्ो ही रेड लाईट एरिया में भेज दी जाती हैं। जब तक अंध्ाविश्वास नहीं मिटता गांव वाले और खुद लड़कियां और उनके माता-पिता इसके खिलाफ खड़े नहीं हो सकते।
एक और वजह है जिससे लड़कियां आसानी से मानव-तस्करों के जाल में फंस जाती हैं। वह है माता-पिता और बेटियों के बीच विश्वास और मैत्री का रिश्ता होना। ऐसे में लड़की मां-बाप को बताने के बजाए अपने तथाकथित प्रेमी के साथ भाग जाती है। दिखाने के लिए वह उससे शादी भी कर लेता है परंतु जल्द ही वह उसे बेच भी देता है- ऐसी कई केस हिस्ट्रीज सामने आई हैं। मॉडलिंग और फिल्मों के चक्कर में घर से भाग जाने वाली लड़कियों का भी कमोबेश यही हश्र होता है। यदि लड़कियां ग्लैमर बिजनेस में जाने की ख्वाईश भी रखती हों तो उसमें कुछ बुरा नहीं है। मगर इसमें वे थ्रू प्रॉपर चैनल जाएं, अपनी गतिविध्ाियां अपने संरक्षकों और घरवालों की जानकारी में रखें, काम पाने के लिए दैहिक समझौता करें। ग्लैमर की दुनिया के ऊपरी दिखावों और विलासी जिंदगी में अपने को भरमाएं। तब वे शोषण से बच सकती हैं। दरअसल कभी-कभी मां-बाप भी अपनी बेटियों से मित्रता का रिश्ता नहीं रखते। ऐसी लड़कियां दुष्टों के जाल में आसानी से फंसती हैं।
लड़कियों के भीतर ये आश्वासन होना चाहिए कि गलती होने पर भी उनके मां-बाप उन्हें अपना लेंगे या माफ कर देंगे। उन्हें यह विश्वास होना चाहिए कि माता-पिता उनके सपनों और इच्छाओं को समझते हैं। तब वे पिछले द्वार से घर के बाहर नहीं जाएंगी। जिन माता-पिता पर संतान को विश्वास होता है कि मां-बाप फालतू की रोक-टोक नहीं करते, वही पालक अपने बच्चों को उनका भला-बुरा समझाने में भी कामयाब होते हैं। रही शादियों की बात वहां भी बच्चों को यह भरोसा होना चाहिए कि जिसे वे चाहेंगे उससे विवाह करने के लिए उनके मां-बाप जात-पात या अपनी नाक के सवाल पर नहीं रोकेंगे। उन्होंने दुनिया देखी है और व्यक्ति में सचमुच कोई खलने वाली बात हुई तभी विवाह के खिलाफ समझाईश देंगे। यदि यह विश्वास है तो कोई भी घर से भाग कर शादी करना पसंद नहीं करेगा। माता-पिता और बच्चों के बीच भय का रिश्ता भी नहीं होना चाहिए। यदि बच्चे मां-बाप और बड़ों से मन की बात कहने से डरते हैं तब तो वे अपनी गलतियों को दबा-दबा कर अपना नुकसान बढ़ाते ही जाएंगे। दुष्टों की नजर ऐसे संवेदनशील (वल्नरेबल) लड़के-लड़कियों पर हमेशा रहती है। इसीलिए इन बच्चों को देह व्यापार और नशे की गिरफ्त में आने में देर नहीं लगती है।
निर्मला भुराड़िया