गुरुवार, 26 जुलाई 2012

एक ही जीवन में स्वर्ग और पाताल

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हर प्रकार के समाचार माध्यमों ने अपने जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्नाा को श्रद्धांजलि दी है, अत: पिछले हफ्ते में कई बार हम ये किस्से सुन चुके हैं कि कैसे लड़कियाँ उनके फोटो से ब्याह रचाती थीं, उन्हें खून से खत लिखती थीं वगैरह। सत्तर का दशक वह समय था जब भारत में लड़कियाँ उस सामाजिक स्थिति में बस पहुँची ही थीं कि वे अपने रुमानी आईडियाज को अभिव्यक्त कर सकें। ऐसे में पर्दे पर आँखें मिचकाता, गर्दन डुलाता एक सितारा उनके सपनों का ही नहीं, सपनीली अभिव्यक्तियों का भी निशाना बन गय। उस दौर में लड़कियाँ ही नहीं लड़के भी राजेश खन्नाा के दीवाने थे। काका का पहना गुरू कुर्त्ता और पैंट हर युवक का लिबास बन गया था। हेयर कटिंग सैलून में उनकी हेयरस्टाइल कॉपी करने का आग्रह किया जाता, उनकी चाल-ढाल, हाव-भाव की नकल की जाती। उनकी फिल्में सुपरहिट, उन पर फिल्माए गाने सुपरहिट। ऐसी गजब की प्रसिद्धि कि आप भगवान ही हो जाएँ, बमुश्किल ही किसी को मिलती है। अपने ऊँचे समय में इस सुपर सितारा नायक ने जिस आसमान को छुआ उसे तो महानायक अमिताभ भी छू पाए। हाँ अमिताभ उनसे ऊपर इस मायने में जरूर रहे कि वे हमेशा बने रहे, मगर राजेश का सितारा अपेक्षाकृत कम समय के लिए चमका और उनके जीते जी ही अस्त भी हो गया। उन्होंने स्वर्ग और पाताल को एक ही जीवन में छुआ।
सन 1993, इंदौर का श्रीमाया होटल। मैं श्री राजेश खन्नाा के सामने बैठी हूँ। उनसे बातचीत कर रही हूँ। लंबा इंटरव्यू देने के लिए उन्होंने गला खंखार लिया है। मैं गौर से देखती हूँ। उनका सुपर-सितारा अस्तित्व समाप्त हुए दशक से ऊपर बीत चुका है। पलकें झपकाने वाला और अदा से गर्दन मोड़ने वाल मैनरिज्म वहाँ नहीं है। मैं मन ही मन अपने तैयार किए हुए प्रश्नों से अलग एक-दो प्रश्न और सोच लेती हूँ। जैसे कि क्या लोकप्रियता के साथ अहं भी जाता है? और यह भी कि जब इंसान लोकप्रियता की लहर पर सवार होता है तो उसे कैसा लगता है? इस बाद वाले प्रश्न का जवाब उन्होंने यह दिया था कि जब इंसान लोकप्रियता के सर्वोच्च बिंदु पर होता है तो उसे लगता है वह ईश्वर के करीब पहुँच गया है।
भूतो भविष्यति वाली अभूतपूर्व सफलता मिल जाए तो उसे सहना मुश्किल होता है। इतना सुख बर्दाश्त करना भी शायद इंसान के ग्रहण-सामर्थ्य से बाहर है। राजेश खन्नाा जब सफलता की चोटी पर थे, चारों तरफ से सुख, समृद्धि, सफलता, बरस रही थी तो वे इतने हतप्रभ हो गए थे कि सागर में उतर पड़े थे आत्महत्या करने! इतनी कामयाबी कैसे सम्हालें, इसके आगे क्या जैसे सवालों ने उनके दिमाग में तूफान ला दिया था। यही राजेश जब एक के बाद एक फ्लॉप देने लगे, तो आसमान से गिरे और टूट गए। कुंठा में उन्होंने अपने आप को शराब में डुबो लिया। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें खुद पर फिल्माए गाने में से कौनसा सबसे ज्यादा पसंद है पूछे जाने पर उन्होंने कहा उन्हें 'जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते" बेहद पसंद है। क्या लोकप्रियता के साथ अहं भी जाता है के जवाब में उन्होंने कहा था, 'औरों का पता नहीं, पर मुझे यह महसूस नहीं हुआ क्योंकि मैं तो यह मानता हूँ हम सब कठपुतली हैं, जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है।"
खैर राजेश खन्नाा ने स्वयं में अहं आने के बारे में जो जवाब दिया वह कितना सही था और कितना गलत था ये तो वह खुद ही जानते होंगे। मगर फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े पत्रकार मित्र यही बताते हैं कि पर्दे की छबि को लेकर लड़कियों में इतने लोकप्रिय काका अपने जीवन में आई स्त्रियों से तादात्म्य नहीं बैठा पाए। उनकी प्रथम प्रेमिका अंजू महेंद्रू के जमाने में वे सफलता के शिखर पर थे, हमेशा चमचों से घिरे रहते थे। घर हो या फिल्म का सेट, ये चमचे उन्हें नहीं छोड़ते थे। सफलता के अंधेपन ने प्रेमिका को अलग किया, तो असफलता ने पत्नी को। डिम्पल के समय राजेश का असफलता का दौर चुका था और वे खिन्ना, कुंठित रहते थे। यह सब डिम्पल को भुगतना पड़ा और वे अलग हो गईं। यानी सफलता और असफलता दोनों को ही सम्हालना उनके लिए कठिन रहा। राजेश खन्नाा के जीवन की स्थितियाँ तो एक्स्ट्रीम थीं, मगर थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव और सफलता-असफलता के दौर तो हरएक के जीवन में आते हैं। काका के जीवन से यही सबक लिया जा सकता है कि सफलता की राह देखे बगैर और असफलता की परवाह किए बगैर, हर पल खुशी से जी लेना अच्छा है। जिंदगी एक सफर है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना? 
निर्मला भुराड़िया
रफ़्तार

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

दाग अच्छे हैं पार्टी!


भतीजी मौलश्री ने अपनी नन्ही-मुन्नाी बिटिया, दो वर्षीय अन्वी का बर्थडे एक अनूठे ही अंदाज में मनाया। उसने पार्टी का शीर्षक दिया, 'दाग अच्छे हैं" वैसे आमतौर पर इन दिनों बच्चों की बर्थडे पार्टी में यह होता है कि बच्चे सज-धज कर आते हैं, ऐसे कपड़े पहनकर जिस पर कुछ गिर जाए यह डर माँ-बाप को रहता है। पार्टियों के प्लानर होते हैं, बच्चों की पार्टियाँ भी इवेंट मैनेजमेंट के हिस्से में आती हैं। कुल मिलाकर औपचारिकता और दिखावा ज्यादा मौज मस्ती कम। इस वजह से इन पार्टियों में बच्चे खुल कर खेल नहीं पाते। हर वक्त डर में रहते हैं कि कुछ टूट जाए, कुछ गिर जाए, कपड़े खराब हो जाएँ। जो खेल बड़े खिलवाते हैं वही वे खेलते हैं। मगर दाग अच्छे हैं पार्टी में ऐसा कुछ नहीं था। इस पार्टी में बच्चों को खुलकर खेलने, ढोलने, बिखेरने, गपड़-सपड़ करने का मौका था। जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, दाग अच्छे हैं पार्टी का मकसद ही यही था कि बच्चे खुल कर खेलें। इस पार्टी में बच्चों के खेलने के लिए ऐसी ही चीजें उपलब्ध करवाई गई थीं जो आजकल शहरी बच्चों को यूँ ही खेलने के लिए नसीब नहीं होती। इन्हें अलग-अलग गतिविधियों के रूप में बाँटा गया था, ताकि बच्चे अपनी मर्जी की एक्टिविटी चुन कर उसका मजा ले सकें। जैसे पॉट प्लांट- इस गतिविधि के लिए मिट्टी, पौधे और छोटे-छोटे गमले रखे थे। जिस बच्चे की इच्छा हो वह पौधा रोपे। या यँू कहें पौधा रोपने के खेल में लग जाए। एक और एक्टिविटी थी पॉट योर पॉट। इसमें कुम्हार की मिट्टी थी। बच्चे चाहें तो आड़े-तिरछे, आँके-बाँकें मिट्टी के बरतन बनाएँ, और कुछ नहीं तो मिट्टी थेप कर मजे से हाथ गंदे करें। एक था पेंट योर पेपर। यहाँ बच्चों को रंग, पानी, पेपर आदि दे दिए गए थे। ढोलो, रंगो, बनाओ। या कागज पर अपने नन्हे हाथ का छापा लगाओ। चाहो तो अपनी नाक पर रंगीन हथेली रगड़ मारो या अपनी ड्रेस पर ठप्पा मार लो। कोई कुछ कहेगा नहीं। आमंत्रितों की मम्मियों को पहले ही कह दिया गया था कि चाहें तो बच्चों को एप्रेन पहना कर भेजें। भई यह तो दाग अच्छे हैं पार्टी है। एक कोने में इनफ्लेटेड पूल भी रखा गया था, जिसमें पानी और झाग थे। बच्चे इसमें चाहें तो खेलें, झाग उड़ाएँ, संतरंगी बुलबुले बनाएँ और फोड़ें! उनकी मर्जी। यहाँ कौन कहेगा गीले मत होओ, सर्दी लग जाएगी! एक तरफ पानी के साथ मछलियाँ भी रखी गई थीं, नकली प्लास्टिक की मगर रंग-बिरंगी मछलियाँ। साथ में बच्चों की खिलौना मछली पकड़ने की बंसी। इसमें प्लास्टिक की फिश अटक जाती तो बच्चों को बहुत मजा आता। और भी गतिविधियाँ थीं। मतलब यही कि मिट्टी, पानी, पौधे, जैसी नैसर्गिक चीजों का साथ और इनसे मनचाहे ढंग से खेलने की उन्मुक्तता। बच्चों को इससे ज्यादा मजेदार और क्या लग सकता है?
एक-दो दशक पहले तक का बचपन आज जितना बंधा हुआ नहीं था, ही बच्चों से उन तमाम औपचारिकताओं की उम्मीद की जाती थी जो बच्चे का मन भले रखें रखें माँ-बाप का स्टेटस जरुर बनाए रखें। धूल-धमासा, मिट्टी-पानी उपलब्ध भी थे और इन्हें छूना मना भी नहीं था। आज बच्चों के लिए शिक्षा आदि के अवसर जरूर बढ़ रहे हैं, मगर खुलकर खेलने के अवसर कम हो रहे हैं। बहुत से बच्चे जानते ही नहीं कि उन्मुक्त बचपन क्या होता है। ऐसे में कभी-कभी दाग अच्छे हैं वाली छूट बड़ी प्यारी होती है। बच्चों का लालन-पालन करने के लिए बच्चों का मनोविज्ञान समझना जरुरी होता है। यही नहीं आपको अपने बचपन में जाकर, बच्चा बन कर सोचना होता है कि एक बालक क्या चाहता है। किन स्थितियों में वह खुश होता है, किन स्थितियों में अपमानित होता है, किन स्थितियों में कसमसाता है पर प्रतिवाद नहीं कर पाता, क्योंकि वह बच्चा है, पर निर्भर और कमजोर है।
परिवार के स्तर पर ही नहीं देश के स्तर पर भी हमारे यहाँ बच्चे की एक नागरिक और भावी कर्णधार की तरह चिंता नहीं की जाती। रोज बच्चे बोरवेल में गिर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद सुरक्षा संबंधी गाइड लाईंस का पालन नहीं हो रहा। बंगाल में एक वॉर्डन ने रात में बिस्तर गीला करने वाली बच्ची को स्वमूत्र पान की घिनौनी सजा दे डाली! बच्ची की बीमारी और मनोविज्ञान समझ कर उचित चिकित्सा करवाने के बजाए। लाख कानूनों के बावजूद देश से बाल मजदूरी विदा हुई है बाल विवाह। आखिर हम कब बच्चों को भी एक संपूर्ण मनुष्य समझ कर उनसे आदर और प्यार भरा व्यवहार करना सीखेंगे।
निर्मला भुराड़िया
रफ़्तार

बुधवार, 4 जुलाई 2012

स्त्री, पुरुष और वे!

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कैथलिक क्रिश्चियन थियोलॉजी की मान्यता अनुसार जो बच्चा बपतिस्मा होने के पूर्व ही मर जाता है उसे स्वर्ग में जगह मिलती है नर्क में, वह जिस स्थान में रह जाता है उसे कहते हैं लिम्बो। यानी उसका निस्तार नहीं होता। शायद इसीलिए अंग्रेजी में 'इन लिम्बो" का आशय है अनिर्णित रहना। कहीं का होना, बीच में झूलते रह जाने वाली ध्वनियाँ भी इससे आती हैं। हिन्दू आख्यानों में भी एक त्रिशंकु हैं, जो आसमान से धकेले गए पर धरती पर भी ना टपके, सो बीच में ही झूलते रहे। हमारी भाषा में आर-पार होने की स्थितियों में त्रिशंकु शब्द का उपयोग किया जाता है। लेकिन कोरी भाषा के पार जाकर सोचें तो एक त्रिशंकु का दर्द दूसरा त्रिशंकु ही समझ सकता है, हालाँकि मनुष्यता के नाते एक समदु:खभागी को ही नहीं सभी को यह पीड़ा समझना चाहिए। मनुष्यता नाम ही इसी का है।
एशियाड खेलों की गोल्ड मैडलिस्ट धावक पिंकी प्रमानिक ओलिम्पिक शुरू होने के ठीक पहले एक विवाद में फँस गई हैं। तीन साल से उनकी रूममेट रही एक लड़की ने अचानक यह इल्जाम लगा दिया है कि पिंकी पुरुष है और उसने अपनी पार्टनर के साथ ज्यादती की! पिंकी लड़की है या लड़का इस बारे में जाँच का रिजल्ट इन पंक्तियों के लिखे जाने तक आया नहीं है। मगर रिजल्ट जो भी हो, ऐसा नहीं लगता कि मैडल जीतने के लिए स्त्री वेश बनाकर पिंकी ने धोखेबाजी की हो। वह शुरू से ही लड़कियों के स्कूल में पढ़ी। लड़की के रूप में ही पली-बढ़ी और धाविका बनी है।
साउथ अफ्रीका की एक खिलाड़ी केस्टर सेमन्या को एक बार ऐसे ही सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट से गुजरना पड़ा था। जिसके नतीजों में क्रोमोसोम के विचित्र पैटर्न्स के अलावा यह पाया गया कि उसके शरीर पर स्त्री के अंग हैं, मगर शरीर के भीतर ओवरी और गर्भाशय नहीं है। मगर बाहरी संरचना में स्त्री अंगों के साथ ही, अविकसित रूप में सही पुरुष अंडकोष भी हैं! अब इस अजीब संरचना के साथ केस्टर कैसे निर्णय करती कि वह कौन है। अत: उसने स्त्री रूप में खिलाड़ी बनना पसंद किया, तो कोई धोखा तो नहीं किया। भारत में तो स्थितियाँ और मुश्किल हैं। तीसरे जेंडर के लोग भारत में सिर्फ उपेक्षित ही नहीं हैं। पूरी तरह अलग-थलग कर दिए गए हैं, नतीजतन आम लोगों से अलग समांतर समाज में रहने को विवश हैं। अपने कुनबों के भीतर ही इन्हें मित्रता और सहायता मिलती है और अपने कुनबों की रूढ़ियों, अंधविश्वास और कुप्रथाओं में ही इन्हें आजीवन जीना पड़ता है। आम जन से तो इन्हें दुत्कार ही मिलती है, नतीजतन वे और उग्र हो जाते हैं तो और ज्यादा घृणा और दुत्कार मिलती है। इन्हें वह बर्ताव नहीं मिलता जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से करना चाहिए। उन्हें कहीं काम नहीं मिलता, कहीं भर्ती नहीं मिलती, कहीं पढ़ाई लिखाई के मौके नहीं मिलते। समाज की मुख्यधारा उन्हें सम्मानपूर्वक अपने भीतर समाहित नहीं करती। आखिर किस दोष की वजह से? यदि प्रकृति ने उन्हें कोई शारीरिक कमी या शारीरिक भिन्नाता दी है तो यह उनका दोष तो कदापि नहीं है। फिर यह अपमानजनक व्यवहार क्यों? कहीं भी प्रवेश चाहिए तो हमारे यहाँ 'एफ" या 'एम" के अलावा तीसरा ऑपशन कहाँ है? तमिलनाडु सरकार ने जरूर अभी-अभी कॉलेजों में प्रवेश हेतु अपने फॉर्म में यह सुविधा दी है। चुनावों में भी अब जाकर इस केटेगरी के वोट देने की पात्रता बनी है। मगर इतने भर से कुछ भी नहीं होता। थर्ड जेंडर के लोग बिना अपराध के कड़ा दंड भुगत रहे हैं। यदि वे लड़कियों के बाथरूम में चले जाएँ तो लड़कियाँ चिल्ला पड़ेंगी और उन्हें निकाल बाहर करेंगी। पुरुषों के बाथरूम का इस्तेमाल करने में उन्हें कुछ लोगों से खतरा भी हो सकता है और यह उनके लिए शारीरिक रूप से असुविधाजनक भी हो सकता है। क्या हमारे यहाँ जेंडर न्यूट्रल बाथरूम हैं? यदि नहीं तो वे एफ या एम किसी केटेगरी में तो जाएँगे ही? फीमेल केटेगरी में गए तो उन पर जाँच बैठा दी जाएगी। तो फिर वे क्या करें? आजकल सेक्स रिअसाईमेंट सर्जरी भी होती है। मगर यह भी सामाजिक, आर्थिक सहयोग और गहन मनोचिकित्सीय परामर्श के बाद ही संभव है। थर्ड जेंडर के आम व्यक्ति के लिए दूर की कौड़ी है। इसकी जटिलताओं के चलते यह हर किसी के लिए संभव भी नहीं है। अत: इस तरह के व्यक्ति को समाज का सहयोग, शिक्षा-दीक्षा, रोजगार, सम्मान ही मिल जाए तो वह सुखपूर्वक जी सकता है।
निर्मला भुराड़िया
रफ़्तार