सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

जिंदा मजा!



बारिश के दिन थे। बरामदे में बैठी दादी अपने नन्हे पोते से बात कर रही थी। बस ऐसी ही मासूम बातें जैसे कि बारिश संग धूप निकल आए तो चिड़िया की शादी होगी। इतने में बिजली कड़की। दादी ने खट कहा- 'वो देखो रामजी आसमान में बैठकर फोटो खींच रहे हैं। कैमरा चमका रहे हैं।" दादी बोली तो पोता ताली बजाकर हँसा। भीतर बच्चे के पिता यह वार्तालाप सुन रहे थे, वे बाहर आए और मुस्कुराते हुए प्यार से बोले- 'क्या अडंग-बड़ंग बता रही हो माँ।" 'अरे अड़ंग-बड़ंग नहीं, ऐसी बातों से तो बच्चे की कल्पना का विस्तार होता है," दादी ने कहा। और अब वे बच्चे को सारस और लोमड़ी वाली कहानी सुना रही थीं। कैसे लोमड़ी ने खीर बनाई और थाली में परोस दी, बेचारा सारस खा ही नहीं पाया, लोमड़ी लप-लप सब खीर चाट गई। जब सारस की बारी आई तो उसने चने बनाए और सुराही में परोस दिए। लोमड़ी उसमें मुँह ही डाल पाई, सारस अपनी लंबी चोंच से उठाकर सब चने खा गया।

बच्चे को इस कहानी में बहुत मजा आया। उसने कई प्रश्न पूछे कि लोमड़ी का मुँह कैसा होता है, क्या वह सुराही में मुँह डालती तो उसका मुँह फँस जाता वगैरह। बच्चे के पिता ने लैपटॉप लाकर गूगल करके पुत्र को खट् से लोमड़ी बता दी। दादी माँ ने कहानी के पीछे लगाया सीख का पुछल्ला कि मेहमान बुलाए जाएँ तो उनके पसंद का खाना बनाना और उनकी सुविधानुसार व्यवस्था करना कितना जरूरी है। और, यह भी कि जैसे को तैसा मिलता है। वगैरह। शायद वे पोते को कोरा उपदेश देतीं तो वह सीख नहीं सुनता। टीवी और कम्प्यूटर के बनी-बनाई और कृत्रिम छबियों के अतिक्रमण से बेहाल लोग अब फिर किस्से-कहानियों की दुनिया में बच्चों का मानसिक विकास देखने लगे हैं। एकल परिवार में रहने वाली एक बड़ी कंपनी की सीईओ कहती हैं कि दादी-नानी के अभाव में उन्होंने अपनी बेटी के लिए एक डायरी तैयार की है। उसमें वह अपने बचपन में सुने किस्से तो लिखती ही हैं, कुछ समयानुकूल बाल कहानियाँ उन्होंने खुद तैयार की है, जिन्हें वह समय-समय पर अपनी बेटी को सुनाती हैं। धीरज, मदद, दयालुता, प्यार, एकता, हास्य बोध आदि भावनाओं को उभारने वाली कहानियाँ उन्होंने तैयार की हैं। उनकी बच्ची को टीवी देखने पर रोक-टोक नहीं है। जो कहानी मम्मी या पापा सुनाते हैं वह तो बच्ची के लिए अतिरिक्त है और बहुत मजेदार है। इसके कई फायदे हैं। कहानी सुनते वक्त वह पापा या मम्मी से सट कर बैठती है। उसे मम्मी के साथ-साथ एक्ंिटग करने को भी मिलता है। जैसे तरह-तरह की आवाज बनाना, आँखें गोल-गोल करना, हाथ की उँगलियाँ नचाना, भालू या शेर की आवाज निकालना वगैरह। टीवी में यह जिंदा मजा कहाँ? वहाँ तो यह कल्पना करने की भी जगह नहीं कि हम महल काँच का बनाएँ कि पत्थर का। किले की राजकुमारी किसके जैसी दिखती होगी वगैरह। इस गुड़िया की मम्मी का तो साफ कहना है कि हम जो किस्से-कहानी सुनाते हैं, वे बच्चों के लिए नैतिक वसीयत हैं। भले वह किस्सा वाचिक परंपरा के जरिए लोक-जीवन से आया हो, पंचतंत्र, हितोपदेश, ईसप की कहानियों से या स्वयं गढ़ा गया हो। आमने-सामने कहे जाने वाले किस्से बच्चों में जीवन के प्रति गहरी दिलचस्पी जगाते हैं, उनका मनोरंजन भी करते हैं। किस्सागोई का अनुपम संसार सिर्फ बच्चों को अपनी मोहकता में बाँधे रखता है, उन्हें अधिक कल्पनाशील अधिक संवेदनशील इंसान भी बनाता है। वो कहा जाता है कहतेे, सुनते, हुँकारा भरते बच्चे ज्ञान और नैतिकता दोनों ही ग्रहण कर लेते हैं।

निर्मला भुराड़िया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें