बुधवार, 14 सितंबर 2011

साहसी बोल


पिछले दिनों हिन्दुस्तान में भी प्रदर्शित पाकिस्तानी फिल्म 'बोल" को सभी समीक्षकों ने एकमत से सराहा है। जो दर्शक यह फिल्म देखकर आए उनके दिल में भी इस फिल्म से उठे सवाल मंडराते रहे। पाकिस्तान में इस वक्त जो हालात हैं उसके मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि निर्देशक शोएब मंसूर ने अपना सिर गिरवी रखकर यह फिल्म बनाई है। दर्शक को गहरे तक प्रभावित करने वाली और अंत तक बाँधे रखने वाली यह फिल्म एक धार्मिक कट्टरपंथी अपने परिवार के साथ कैसा निर्दयी सलूक करता है इस बारे में है। फिल्म के यह हकीम साहब बेटे की आस में बच्चे पैदा करते चलते हैं। इनकी बीवी को चौदह बच्चे पैदा करके भी छुटकारा नहीं है, क्योंकि अभी बेटा नहीं हुआ है। परिवार नियोजन के वे खिलाफ हैं, क्योंकि यह उनके हिसाब से अल्लाह के काम में बाधा डालना है। बेटियों को वे पढ़ने-लिखने नहीं भेजते। उन्हें घर में सीमित रखते हैं। वे क्या और क्यों करते हैं, उस हर बात के लिए उनके पास धार्मिक तर्क है। अपनी तमाम क्रूरताओं और तंगदिली के लिए भी। लड़के की चाह में बच्चे पैदा करते-करते बीच में एक बच्चा ऐसा हो जाता है जिसका जेंडर स्पष्ट नहीं है। इस तीसरे जेंडर वाले बच्चे से हकीम साहब बेहद नफरत करते हैं। उसकी शक्ल देखना भी पसंद नहीं करते। बच्चा घर पर छत पर बने एक कमरे में ही, लगभग कैदी की तरह रहता हैैैै, अपने पिता के सामने आने की कभी जुर्रत नहीं करता। हकीम साहब को अपने ही जने इस बच्चे से प्यार हो सही, मगर उनके मन में रत्तीभर भी करुणा भी नहीं है जो एक इंसान के मन में दूसरे इंसान के लिए होना चाहिए। उन्हें लगता है ऐसे बच्चे ने उनके घर जन्म लेकर उनकी साख को बिगाड़ दिया है। पाकिस्तान में गैरत के लिए अपनों का ही कत्ल करने के विचार के बहुत से लोग हामी हैं। यानी बेटी या बहन के साथ बलात्कार हो जाए तो लड़की को ही कत्ल कर देना। या बेटी या बहन अपनी मर्जी से किसी से विवाह कर ले तो उसकी हत्या कर देना। हकीम साहब अपने थर्ड जेंडर वाले बदनसीब बेटे के साथ ऐसा ही होने पर बड़ी बेशर्मी से उसका कत्ल कर देते हैं। इस बात का उन्हें अफसोस नहीं, बल्कि गर्व है।

हमारे यहाँ के हालात पाकिस्तान जितने बिगड़े हुए नहीं हैं, फिर भी थोड़ा घूम-फिर कर कुछ बातें हिन्दुस्तानी समाज में भी इस तरह की होती हैं। हमारे यहाँ औरतों को अब चौदह बच्चे नहीं पैदा करना होते, मगर परिवार द्वारा बेटे की चाह में औरतों का बार-बार गर्भवती होना और गर्भपात की तकलीफ से गुजरना हिन्दुस्तान में भी होता है। कानूनी प्रतिबंध के बावजूद। हमारे यहाँ भी खाप पंचायतों द्वारा ऑनर किलिंग के कई किस्से सामने आए हैं। बच्चों द्वारा अपनी तथाकथित जात या धर्म से बाहर शादी कर लेना कई भारतीय पालकों के लिए नाक का सवाल है। और इसके लिए वे खुद के बच्चों से ही क्रूरताभरा सुलूक भी कर सकते हैं। यह सच है कि पाकिस्तान में किसी भी कट्टरपंथी को फलने-फूलने की आबो-हवा मिलती है। मगर हिन्दुस्तान में भी, किसी भी धर्म में, किसी भी समाज में कट्टरपंथी मिल जाएँगे।

कट्टरपंथी के चरित्र की एक खासियत होती है कि वह नफरत बहुत शिद्दत से करता है। करुणा और कट्टरपंथ एक-दूसरे के विलोम होते हैं। सिर पर खब्त सवार होने पर कट्टरपंथी कत्ल भी कर सकता है। कट्टरपंथी पत्थर-दिल होता है, उसे कोई दया-माया नहीं होती। वह अपने टारगेट को अनजाने में नहीं, जानते-बूझते त्रास देता है और इसका उसे कोई पछतावा नहीं होता, बल्कि इस व्यवहार को जायज ठहराने के तर्क जरूर उसके पास होते हैं। ये तर्क वह अधिकांशत: धर्म के हवाले से ही लाता है। धर्म की मनचाही व्याख्याएँ रचकर वह अपनी क्रूरता को सही ठहराता है। अपने द्वारा लगाई पाबंदियों को कट्टरपंथी मर्यादा और परंपरा का नाम देता है। वह अपने गलत को भी सही समझता है। हृदय परिवर्तन की किसी भी गुंजाइश को अपने भीतर प्रवेश नहीं करने देता। कट्टरपंथी दोहरे मापदंड भी रखता है। फिल्म 'बोल" के हकीम साहब, बेटी जिस भले, मददगार और पढ़े-लिखे पड़ोसी से मुहब्बत करती है, उससे उसकी शादी नहीं होने देते, क्योंकि वे सुन्नाी हैं और लड़का शिया। वे मैरेज ब्यूरो में जाते हैं और फरमाते हैं कि उनकी लड़की के लिए जल्द से जल्द कोई दूल्हा ढूँढ दिया जाए, किसी उम्र का हो चलेगा, बस उनसे (हकीम साहब से) छोटा हो। हकीम साहब स्वयं किसी वजह से अपनी बेटी की उम्र की तवायफ के साथ रिश्ता बनाते हैं, जो कि शिया है। अपनी इस हरकत को जायज बनाने के लिए वे तवायफ से निकाह रचाते हैं, क्योंकि इस धार्मिक इजाजत के बाद पुरुषों को सब जायज है।

यह पाकिस्तानी फिल्म हमें भी एक चश्मा प्रदान करती है कि हम भी लिंगभेद से ऊपर उठकर सोचें। हमारे समाज में ही पैठे कट्टरपंथियों को पहचान कर उन्हें आईना दिखाएँ, ताकि सबके लिए समानता वाला एक तार्किक, साफ-सुथरा और मानवीय करुणा से पूर्ण समाज हमारे यहाँ भी हो। फिल्म 'बोल" की जाँबाज नायिका अपने, अपनी माँ और बहनों के अधिकारों के लिए अपने कट्टरपंथी पिता से भिड़ती है चाहे फिर रोज मार खाना पड़े और अंतत: फाँसी पर चढ़ जाना पड़े।

निर्मला भुराड़िया

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