बुधवार, 18 मई 2011

मरीज को चाहिए संपूर्ण राहत



कहावत है पहला सुख निरोगी काया। सच है अच्छे स्वास्थ्य से बड़ी नियामत क्या हो सकती है? हर इंसान चाहता है और कोशिश करता है कि वह स्वस्थ रहे, मगर देह है तो बीमारियाँ भी हैं, तमाम सावधानियों के बावजूद बीमारियाँ आती हैं। आज चिकित्सा विज्ञान ने काफी उन्नाति कर ली है। बहुत-सी बीमारियाँ अब लाइलाज नहीं रहीं, समय पर सही इलाज करने पर वे ठीक भी हो जाती हैं या नियंत्रित हो जाती हैं। तरह-तरह की सर्जरियाँ जादुई तरीके से काम कर रही हैं। डॉक्टर दिल को शरीर से निकाल कर ठीक करके वापस शरीर में लगा देते हैं। और भी बहुत कुछ। यह सब भारत में भी हो रहा है। लेकिन भारत में कई इलाकों में अच्छी और तत्पर चिकित्सा आज भी एक स्वप्न ही है। चिकित्सा में एक और चीज है जिसमें भारत पीछे है- वह है पेलिएटिव केयर। पेलिएटिव केयर चिकित्सा विज्ञान की एक ऐसी शाखा है, जिसके विशेषज्ञ मरीज की संपूर्ण राहत और दर्द मुक्ति के लिए काम करते हैं। जिस बीमारी का इलाज चल रहा है वह तो चलता ही है, पेलिएटिव केयर विभाग बीमारी के सहप्रभावों जैसे जी मितलाना, थकान, भूख में कमी, तनाव, दर्द, साँस लेने में तकलीफ जैसे लक्षणों से मरीज को राहत दिलाने का काम करता है। मरीज के प्रशनकूल मन को शांत करना भी पेलिएटिव केयर में आता है। क्या मैं ठीक हो जाऊँगी, क्या फलाँ दवा लेने से जी तो नहीं मितलाएगा? क्या इसके साथ जी मितलाने की दवा लेना है? खून की रिपोर्ट में तो कुछ नहीं आया फिर गला क्यों दुख रहा है आदि। दरअसल पेलिएटिव केयर का काम मरीज की चिंताओं, भय और असुरक्षाओं का भी शमन करना है। पेलिएटिव केयर चिकित्सक और नर्स में इसीलिए करुणा और धैर्य जैसे गुणों की भी अनुशंसा की जाती है। यही नहीं, कई मरीजों में दर्द-निवारकों को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियाँ भी होती हैं, जैसे फलाँ दवा की आदत तो नहीं हो जाएगी? ऐसा तो नहीं होगा, वैसा तो नहीं होगा। यह मानसिकता भी मरीज की दर्द मुक्ति की राह में बाधा बन जाती है। पेलिएटिव केयर ऐसे मरीज को वैज्ञानिक तरीके से बात समझाने की जिम्मेदारी भी लेती है। यही नहीं, दर्द का इलाज यहाँ अलग से किया जाता है, मूल बीमारी के डॉक्टर द्वारा किए जा रहे इलाज के अतिरिक्त। इसमें मरीज को दर्द-प्रबंधन की ट्रेनिंग दी जाती है, जबकि हम यह गौर ही नहीं करते कि मरीज का संत्रास निवारण भी अपने आपमें देखभाल का एक हिस्सा है, बीमारी के डॉक्टर को दिखलाकर झट से कह दिया जाता है इलाज चल तो रहा है! आपका चिकित्सक आपका इलाज कितनी भी अच्छी तरह से कर रहा हो, उसका फोकस मूल बीमारी पर ही अधिक होता है। बाकी चीजों से मरीज जूझता रह जाता है। पेलिएटिव केयर में मरीज से जुड़ी शारीरिक ही नहीं मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और पारिवारिक स्थितियों पर भी सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाता है।
कैंसर जैसी बीमारियों में भारत में भी अब सपोर्ट ग्रुप्स भी बन रहे हैं। इनमें भी एक किस्म से पेलिएटिव चिकित्सा हो जाती है। लोग एक दूसरे को अपने साथ हुए लक्षणों और उनके इलाज को बाँटते हैं, मगर अन्य बीमारियों में नहीं। मरीज की बीमारी दूर करने के साथ ही उसके भय, चिंताएँ और खास करके उसके दर्द और संत्रास को दूर करना भी एक लक्ष्य है, यह बात परिवार, समाज और चिकित्सा विज्ञान को जरूर सोचना चाहिए।
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निर्मला भुराड़िया

nirmala.bhuradia @gmail.com

बुधवार, 11 मई 2011

तुम्हारा नाम क्या है बसंती...!



रिश्ते की एक मामी का देहावसान हुआ, तब पता चला उनका नाम कुमुदिनी था। मामी का मायका धनबाद में था सो जीवनभर उन्हें धनबाद वाली के नाम से ही पुकारा गया। इतना सुंदर, फूल का नाम मगर उसका इस्तेमाल ही नहीं हुआ। उन्हें कुमुदिनी के नाम से किसी ने जाना ही नहीं। एक दो पीढ़ी पहले तक ही ऐसी कई महिलाएँ थीं जो भुसावल वाली, अमरावती वाली, उदयपुर वाली संबोधन के साथ ही जिंदगी निकाल गईं, रिश्ते निभा गईं। वहीं पिछली पीढ़ियों में ऐसी महिलाएँ भी हुईं जो अपने बच्चों के नामों के जरिए संबोधित होती रहीं। जैसे उमा की माँ, गोपाल की बाई, कन्नाू की मम्मी, हरि की अम्मा आदि। कुछ लोग यह वकालत करते हैं कि भारतीय परंपरा में तो माँ को पिता पर प्रमुखता दी गई है इसलिए कौशल्यानंदन जैसे संबोधन आए हैं। मगर सच तो यह है कि एक राजा की चार रानियाँ हों तो कौन किस माँ से है यह तो माँ के नाम से ही पता चलेगा।! इसलिए इस संबोधन के पीछे बहुपत्नीवाद है, माँ का महत्व नहीं। शादी के बाद सरनेम तो लगभग हर स्त्री का बदलता है। मगर कुछ समाजों में विवाह के पश्चात लड़की का नाम भी बदल देने की परंपरा है। सहेलियों को कॉलेज में पढ़ने वाली अलका देशपांडे ढूँढे नहीं मिलेगी, क्योंकि वह तो शादी के बाद नियति पुणेकर हो गई! सुषमा के समुदाय में शादी के बाद लड़की का नाम बदलने की कोई परंपरा नहीं पर उसके ससुराल वालों को यह नाम पसंद नहीं था। वे चाहते थे उनकी बहू का नाम पूजा हो सो उन्होंने नाम बदल लिया। हालाँकि मायके और ससुराल वालों के बीच इस बदला-बदली को लेकर थोड़ी टसल हुई, मगर फिर लड़की ने सोचा चलो ठीक है नाम बदलने से झंझट टलती हो तो यही सही। कई बार देवरानी-जेठानी एक ही नाम की जाए तो बाद में आने वाली को नाम बदलना पड़ता है। दो जँवाई एक ही नाम के हों तो चल जाता है, पुरुषों के नाम यूँ नहीं बदले जाते। लड़की की नाम से जुड़ी आइडेंटिटी आराम से समाप्त कर दी जाती है। हालाँकि अब कई लड़कियाँ प्रोफेशनल डिग्री प्राप्त होती हैं, जॉब होल्डर होती हैं, उनके पासपोर्ट होते हैं और वे अपनी पहचान को लेकर सजग होती हैं, अत: नाम बदलने का प्रचलन अब धीमा हो गया है। बहुओं को अब उनके नाम से भी पुकारा जाता है।

कहा जाता है नाम में क्या रखा है। गुलाब को गुलाब कहो तब भी वह गुलाब ही रहेगा। मगर नाम सिर्फ व्यक्ति की पहचान और संबोधन से ही नहीं जुड़े हैं, व्यक्ति का नाम अपने आप में एक भाषा है। लोग नामों से बहुत कुछ अभिव्यक्त करते हैं। पहले मालवी लोग आखिरी संतान लड़की हो तो उसका नाम धापूबाई रखते थे। आधुनिक समय में धापूबाई तृप्ति हो गई। राजवंशों में दादा के नाम पर पोते का नाम फिर उसके नाम पर उसके पोते का नाम इस तरह श्र्ाृंखला चलाई जाती है और उन्हें फिर प्रथम, द्वितीय, तृतीय कहा जाता है। ब्रिटिश राजवंश में एलिजाबेथ, विक्टोरिया, मार्गरेट और अलबर्ट नाम घूमते रहे हैं। लोग जब बच्चे या बच्ची का नाम रखते हैं तो बहुत सोचकर ढूँढकर अच्छे से अच्छा नाम रखते हैं। आजकल तो नामों की पुस्तकें भी आती हैं, इंटरनेट पर भी नाम सुझाने वाली साइटें हैं। मगर कुछ कबीलाई संस्कृतियों में अच्छा नाम रखने के बजाए बच्चे का खराब नाम रखा जाता है ताकि उसे नजर लगे। जिसके बच्चे होते ही मर जाते रहे हों उनका मानना होता है खराब नाम रखने से बच्चा जी जाएगा और वे बच्चे का नाम दगड़ू, पत्थर, फटीचर, झीतरी आदि रख देते हैं। बेचारा बच्चा जीवनभर इस नाम को ढोता रहता है। बच्चे द्वारा माँ-बाप द्वारा रखे गए नाम को नापसंद करने और जीवनभर ढोने पर तो पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त लेखिका झुम्पा लाहिड़ी ने एक पूरा का पूरा उपन्यास लिख मारा है ' नेमसेक"

बुरे किरदारों के नाम पर कोई अपने बच्चों का नाम नहीं रखता। कुछ साल पहले एक फिल्मी पत्रिका ने यह घोषणा की थी कि साठ के दशक के बाद यदि किसी बच्चे का नाम 'प्राण" रखा गया है, तो उसे पुरस्कृत किया जाएगा! जाहिर है, फिल्मी खलनायक प्राण की वजह से लोगों ने इस नाम को छुआ तक नहीं। रावण नाम का व्यक्ति ढूँढे नहीं मिलता। बेचारे कुंभकर्ण का नाम तो अधिक सोने वालों की उपाधि हो गया है, नाम रहा ही कहाँ। मगर गौरतलब यह है कि विभीषण राम के पक्ष में थे, रामकथा में उन्हें अच्छे पात्र के रूप में जाना जाता है फिर भी कोई अपनी संतान का नाम विभीषण नहीं रखता, क्योंकि रावण का नाभिभेद विभीषण ने ही दिया था, यही रावण की पराजय का कारण बना। घर का भेदी अपनों के साथ छल करने का प्रतीक है इसीलिए कोई विभीषण नाम नहीं रखता। क्रिश्चेनिटी में कोई 'जुडस" नाम नहीं रखता जिसने लास्ट सपर के बाद ईसा का पता रोमंस को दिया था। कुल मिलाकर यही कि नाम में बहुत कुछ रखा है। अब देखिए , ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए ओसामा को एक कोड नाम दिया गया था 'जिरोनिमो" जिरोनिमो सदियों पहले उस रेड इंडियन -अपाचे कबीले का सरदार था जिसने अपनी धरती पर कब्जा करने आए अमेरिकियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। अभी तक यह अमेरिकियों के लिए दुश्मन का नाम है। और हाँ सुनते हैं ओसामा के उपसेनापति अयमन अल जवाहिरी ने ही अमेरिकियों को ओसामा का भेद दिया। तो क्या अल जवाहिरी को आज का विभीषण कहें?

- निर्मला भुराड़िया

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