बुधवार, 30 मार्च 2011

थोड़ी मिर्च हो जाए!

"आँकी चली, बाँकी चली, चौरंगी में झाँकी चली," दो औरतें खड़े-खड़े धान कूट रही हैं! बड़ी-सी ओखली और लंबा-सा मूसल, इतने बड़े कि वे थक कर हाथ बदलती हैं। दोनों मिलकर कूट रही हैं, कभी दाएँ हाथ से, कभी बाएँ हाथ से, मगर उनके हाथ लय में चलते हैं, मुँह से फूट रहे गाने के बोलों के साथ-साथ। ये औरतें दो सहेलियाँ भी हो सकती हैं, बहनें भी, पड़ोसनें भी और देवरानी-जेठानी या सास-बहू भी। औरतों को एक-दूसरे की दुश्मन ठहराने का कोई मौका न चूकने वाले जमाने ने स्त्रियों द्वारा मिलकर काम निपटाने और साथ में हँसने-हँसाने के इस बहनापे पर कम ही टिप्पणी की है। बहरहाल वे जो बड़े से मूसल से नृत्यमय लय के साथ कूट रही हैं वह धान ही नहीं मिर्ची भी हो सकती है। तब उनके पास श्रम के अलावा मिर्ची की धाँस की भी चुनौती होगी, तब वे खाँसेंगी, मुँह-नाक पर पल्लू रखेंगी, फिर पल्लू कमर में खोंसते हुए हँसेंगी और फिर मिर्चियाँ कूटने लगेंगी। ऐसे नजारे आज भी ग्रामीण भारत में देखे जा सकते हैं।

खैर, हम आएँ मिर्ची की बात पर। मिर्च मुँह में जलन देती है, आँख-नाक से पानी बरसाती है, खाने वाले से हाय-हाय करवाती है, फिर भी मिर्च मजा क्यों देती है? वैज्ञानिकों का कहना है कि मिर्च हमारे शरीर को चुनौती देती है, जिसकी प्रतिक्रिया में सुखबोध पैदा करने वाले हारमोन रिलीज होते हैं। मिर्च का जलनकारी तत्व कैप्साइसीन हमारे दर्द संवेदियों को उद्देपित करता है, जिससे शरीर प्राकृतिक दर्द निवारक उत्पन्ना करता है। कैप्साइसीन से बने दर्द निवारक मलहम भी बाजार में आते रहे हैं। मिर्च लार बढ़ाती है। भोजन को रंग और स्वाद देती है, जिससे भोजन उबाऊ नहीं रहता। कृषि वैज्ञानिकों का अनुभव है कि मिर्च फफूंदरोधी है। आयुर्वेद भी यही कहता है कि मिर्च पाचन संस्थान को जगाए रहती है। हालाँकि ये सब बातें सही तभी हैं जब मिर्ची अल्प या सामान्य मात्रा में ली जाए वरना लेने के देने पड़ सकते हैं। अधिक मिर्च से एसिडिटी तो हो ही सकती है, कुछ मिर्चियाँ तो इतनी मारक होती हैं कि जानलेवा भी हो सकती हैं। कौनसी मिर्ची कितनी तेज है? यह जानने के लिए मिर्ची मीटर होता है, जिसे स्कोविले स्केल कहा जाता है। मिर्ची मीटर बताता है कि नागालैंड की मिर्ची "भूत जोलोकिया" दुनिया की सबसे तेज मिर्च है, जिसे बर्दाश्त करने की ताकत इन पहाड़ियों में ही है। बेल पेपर यानी शिमला मिर्च मिर्ची-मीटर पर बिलकुल नीचे की तरफ है, इसलिए इसे भोंगा मिर्ची भी कहा जा सकता है।

यह सब तो मिर्ची का वैज्ञानिक पक्ष था। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मिर्च इसीलिए पसंद की जाती है कि इसे खाने में चुनौती है। मेक्सिको और अमेरिका के टेक्सास में समय-समय पर मिर्च खाने की प्रतियोगिताएँ भी होती हैं। कई मिर्च-वीर इसमें अपने झंडे फहराने में कामयाब होते हैं। यदि जीवन के संदर्भ में भी देखा जाए तो जैसे "जीवन का नमक" की उपमाएँ दी जाती हैं वैसे ही "जीवन की मिर्च" की उपमा भी दी जाना चाहिए। जो अपने आरामगृह से निकलता है, प्रयोग करता है, परिवर्तन के लिए तैयार रहता है, चुनौती लेता है वह जीवन की मिर्च का मजा लेता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन बोरिंग नहीं होता। जीवन की मिर्च सुखबोध पैदा करने वाले हारमोन रिलीज करती रहती है।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 16 मार्च 2011

चलो भेजा लड़ाएँ!

कम्प्यूटर पर काम करने वाले/वालियाँ जानते हैं कि हमारे द्वारा एक-दो बार उपयोग किया हुआ मेल आईडी का पहला अक्षर भी एड्रेस वाले खाने में डालें तो पूरा आईडी क्या होगा, इसके विकल्प स्क्रीन पर आ जाते हैं। आपको सिर्फ क्लिक करना होता है। अपना मेल बॉक्स खोलते हुए भी आप पहला अक्षर डालते हैं और पूरा आईडी लिखा हुआ आ जाता है, आपको सिर्फ एरो वहाँ ले जाकर क्लिक करना होता है। पासवर्ड के अलावा और कुछ भी आपको याद रखने की जरूरत नहीं है। फोन नंबरों का भी आजकल कुछ ऐसा ही है। मोबाइल की मेमोरी में सब नंबर हैं। आपने मेमोरी सर्च की और आप जो चाह रहे हैं वह नंबर हाजिर। अधिक इस्तेमाल होने वाले नंबर स्पीड डायल में डले होते हैं। आपने एक डिजिट दबाया और पूरा नंबर अपने आप लग जाता है। आपको अब न टेलीफोन नंबर की डायरी रखने की जरूरत है, न ही अपने निकटतम लोगों के नंबर याद रखने की जरूरत है। लैंड लाइन का इस्तेमाल कम से कम होता है, इसलिए कभी-कभी तो खुद के घरों के मोबाइल नंबर भी दिमाग से उतर जाते हैं। ऐसे मामले भी देखे गए हैं कि सिम खो गई या किसी वजह से सिम के नंबर डिलिट हो गए तो इमर्जेंसी कॉल लगाने हेतु भी भेजे में एक भी नंबर नहीं था। यही आलम अपने ईष्ट मित्रों, संबंधियों, आत्मीयजनों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह या अन्य महत्वपूर्ण अवसर याद रखने के बारे में भी है। मोबाइल में साल में एक बार तिथियाँ फीड कर दीं तो उस खास दिन सुबह अलार्म बज जाएगा। आपने ऐसा नहीं किया है तो आप जिस भी सामाजिक नेटवर्क पर सदस्य हैं वहाँ से आपको आपके फ्रेंड की बर्थ-डे याद दिलाने के मैसेज एक हप्ते पहले ही आने लगेंगे। आपको याद रखने की जरूरत नहीं है। कई जगहों पर कारों में जीपीएस सिस्टम भी लग चुके हैं। आपने जीपीएस सिस्टम इन्स्टॉल किया हुआ है तो सिस्टम खुद आपको रास्ते और दिशा बताता हुआ चलेगा, आपको न ढूँढना पड़ेगा न याद रखना पड़ेगा। गूगल करते हुए आप किसी चीज का नाम गलत लिखते हैं तो खट आ जाएगा "डिड यू मीन दिस?" यही नहीं, अधिकांश सॉफ्टवेयर्स में स्पेलचेक के प्रोग्राम डले हुए हैं। आप गलत स्पेलिंग लिखते हैं तो लाल लाइन आ जाती है। क्लिक करो तो सही विकल्प भी। यानी आपको स्पेलिंग्स याद रखने की जरूरत नहीं। सब कुछ की-बोर्ड पर करते हैं तो मोती से अक्षर बनाना सीखने की भी आवश्यकता नहीं। यानी सब कुछ आपो-आप होगा। भेजा लड़ाने, स्मृति पर जोर देने, प्रयत्न करने की जरूरत नहीं है।

इसमें कोई शक नहीं कि आधुनिक तकनीकी ने जीवन बहुत आसान बना दिया है। लगातार कनेक्टिविटी और सुलभ संचार व्यवस्था ने उन महिलाओं को भी अपने सपने पूरे करने और मनचाहे कार्य करने का अवसर दिया है, जो घरेलू दायित्वों के कारण अधिक भ्रमण नहीं कर सकतीं या घर के बाहर अधिक समय नहीं दे सकतीं। तकनीकी के कारण ही अधिकांश युवक-युवतियों को अपने आकाश का विस्तार करने का मौका मिला है, क्योंकि इसने दुनिया को छोटा कर दिया है और सबकी पहुँच के भीतर किया है। तकनीकी आपात स्थितियों में मनुष्य को बचाती भी है। अब आपके पास तुरंत संदेश की व्यवस्था है। तकनीकी ने दोस्तों का घेरा भी बढ़ाया है और व्यक्ति का एक्सपोजर भी। लेकिन कोई भी अच्छी चीज कितनी भी अच्छी क्यों न हो, उसके इस्तेमाल का संयम और उसके इस्तेमाल की तमीज जरूरी है। साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि यदि इसके सारे फायदे हम गिन रहे हैं तो एक-आध नुकसान हो तो उस पर भी नजर डाल लें और उससे अपने आप को बचा लें। तो यह दिमाग को आराम देने वाली तकनीकी का नुकसान यह है कि आप अपनी छोटी-छोटी बातें याद रखने की क्षमता का इस्तेमाल करना छोड़ रहे हैं। इंसान के लिए जितना जरूरी बॉडी जिम है, उतना ही जरूरी ब्रेन जिम भी है। अतः सुलभ तकनीकी के जमाने में यह जरूरी है कि दिमाग को क्रियाशील बनाने वाले कुछ काम किए जाएँ। नई भाषाएँ सीखना, नए शब्द याद करना, कैलकुलेटर परे रखकर कभी-कभी उँगलियों पर हिसाब गिनना या मेंटल मैथमेटिक्स करने की कोशिश करना अच्छा है। टीवी वाले रेडिमेड मनोरंजन में छवियाँ बनी-बनाई मिलती हैं। अतः अच्छा होगा कभी कोई अच्छी किताब पढ़ना, एक-दूसरे को कोई किस्सा सुनाना। महफिल में बैठकर गप्प लगाना। दादी-नानी की कहानियाँ बच्चों और बूढ़ों दोनों के लिए अच्छी इस मायने में भी होती थीं कि दादियाँ किस्सा कहने के लिए दिमाग पर जोर डालती थीं और बच्चे राजा, राक्षसया परी का कल्पना चित्र कहानी सुनते हुए बनाते थे। लोगों से मिलना-जुलना भी ब्रेन जिम है। किसी की आवाज, शरीरगंध, चेहरा, बर्ताव आदि याद रखने के लिए भी दिमाग को काफी कुछ प्रोसेस करना होता है। अच्छी याददाश्त और सहज-जीवन के लिए कभी-कभी दिमाग को प्रयत्न करने देना भी जरूरी है।

- निर्मला भुराड़िया

सोमवार, 7 मार्च 2011

घर भी चलाएँगीं, विमान भी उड़ाएँगीं

महिलाओं के लिए मुकर्रर एक दिन! कोई बात नहीं जमाना तो पूरा का पूरा कुड़ियों का है। साहित्य, संस्कृति, प्रचार-प्रसार माध्यम स्त्री-विमर्श से भरे पड़े हैं। बेटियों को लेकर आम परिवारों का नजरिया बदल रहा है। भारतीय मध्यम वर्ग में अब बेटियाँ पढ़ती हैं। सिर्फ शादी के इंतजार में ही नहीं पढ़ती, वे अपनी पसंद का व्यावसायिक कोर्स भी करती हैं, ताकि अपना पसंदीदा करियर बना सकें। गाँव-कस्बों की लड़कियाँ भी शहरों में पढ़ने आती हैं। भारतीय समाज में मोटे तौर पर देखा जाए तो बहुओं की वेशभूषा पर ससुरालियों का उतना कठोर नियंत्रण नहीं रहा। रह भी नहीं सकता, लड़कियाँ अब आत्मनिर्भर हैं, उनके माता-पिता अमूमन अब यह नहीं करते कि जहाँ डोली गई वहीं से अर्थी उठेगी। जरूरत पड़ने पर वे अपनी बिटिया का समर्थन भी करते हैं, शादी कर दी कर्तव्य पूरा हुआ जैसी बातें नहीं करते। सास-ससुर भी अब बहू से तथाकथित मर्यादा में बँधे औपचारिक संबंध नहीं रखते। ससुर-बहू बौद्धिक-सामाजिक विषयों या घरेलू निर्णयों पर वैसे ही चर्चा-बहस करते हैं जैसे पिता-पुत्री। बहू अपनी सास को स्कूटी पर घुमाती है या सास-बहू दोपहर में साथ पिक्चर देखने या शॉपिंग पर जाती हैं। नई पीढ़ी के भारतीय पति-पत्नी का साथ अधिक मित्रवत होता है। पत्नी नौकरीपेशा है, थकी हुई, बीमार या व्यस्त है तो पति काम में हाथ भी बँटाता है। स्त्री को संपत्ति समझने वाले जमींदारनुमा पति अब भी होते हैं, मगर पढ़े-लिखे शहरी मध्य वर्ग में अब उनका प्रतिशत काफी कम हो गया है। भारतीय परिदृश्य में अब लड़कियाँ "विजिबल" हैं, पर्दे के पीछे नहीं।

उपरोक्त परिदृश्य बेहद सुखद है। परिवर्तन हुआ है, इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता, मगर कुछ लोग आज भी इस परिवर्तन को पचा नहीं पा रहे। वे तरह-तरह से अपनी कुंठा अभिव्यक्त करते हैं। पिछले दिनों इंडिगो की एक फ्लाइट में उड़ान भरने के पहले कप्तान के नाम की घोषणा हुई। फ्लाइट की पायलट महिला है, यह सुनते ही एक व्यक्ति ने ऐलान कर दिया कि वह इस विमान में यात्रा नहीं करेगा। चूँकि चालक महिला है, अतः दुर्घटना होने का डर है। "घर तो चला नहीं सकती, विमान क्या उड़ाएँगी", कहकर व्यक्ति ने अपना क्षोभ व्यक्त किया। हालाँकि विमान तो रुका नहीं, उस व्यक्ति की ही भद्द पिटी। उसे अंततः उसी विमान से यात्रा करनी पड़ी। आलोचना मिली, खबर बनी सो अलग। मन में पूर्वाग्रह रखकर महिलाओं की काबिलियत को नकारने वाले, महिला होने की वजह से उनकी योग्यता पर संदेह करने वाले आपको अब भी मिल ही जाएँगे। सदियों का पूर्वाग्रह, जमींदारी गर्व, पुरुष होने का अहंकार कई दिमागों से अभी गया नहीं है। गाँव-कस्बों में यदि आदिवासी स्त्री समूह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं तो वहीं ऐसी घटनाएँ आज भी होती हैं, जब स्त्री को डायन घोषित करके उसकी जमीन हड़प ली जाती है। पिता या भाई से हुए झगड़े का बदला उसकी बहन या बेटी से बलात्कार करके लिया जाता है। स्त्री अपने अधिकार का प्रयोग करे तो उसे उसकी तथाकथित औकात बताने के लिए निर्वस्त्र करके घुमाने जैसी घटनाएँ भी होती हैं। यह सच है कि कई स्त्रियाँ सरपंच के रूप में बहुत अच्छा काम कर रही हैं, वहीं कुछ सरपंच पति भी हैं, जो स्त्री के नाम की मोहर और कुर्सी का उपयोग बड़ी बेशर्मी से स्वयं करते हैं। बाल विवाह, शिशु जन्म के वक्त मातृ-मृत्यु जैसी समस्याएँ अब भी पूरी तरह गई नहीं हैं। भारत में स्त्री के संदर्भ में बहुत-कुछ बदला है, मगर अब भी बहुत-कुछ बदलना बाकी है। ग्रामीण स्त्री शिक्षा और स्त्रियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ने पर और सुखद परिवर्तन आने वाले जमाने में हो सकते हैं। जरूरत है तो जनजागरण और सामाजिक संकल्प की।

- निर्मला भुराड़िया

अब नहीं चलेंगे लिंगभेदी चुटकुले

एक बहुत घिसा-पिटा चुटकुला है- दो मक्खियाँ गली में खड़ी एक मोटरसाइकल के आसपास मंडरा रही थीं। उनमें से एक जाकर आईने पर बैठ गई, दूसरी ड्राइवर सीट पर। बताओ उनमें से कौनसी नर थी कौनसी मादा? पहले सीधा उत्तर होता था जो आईने पर बैठी वह मादा और जो चालक की जगह बैठी वह नर! मगर जी नहीं अब यह फटा जोक ही फेंकने लायक नहीं हो गया है, इसके अंत में नई पहेली भी व्यर्थ हो गई है। महिलाएँ बहुतायत से चालक की सीट पर बैठी दिखाई देती हैं। कार, स्कूटर, मोपेड, साइकल ही नहीं महिला एक ड्राइवर, ट्रेन ड्राइवर, टैक्सी चालक, विमान चालक आदि भी हैं। उधर श्रृंगार प्रियता का जहाँ तक सवाल है पुरुषों के मेकअप की एक बड़ी रेंज बाजार में आ गई है। इनमें सनस्क्रीम, एंटीएजिंग क्रीम, कोल्ड क्रीम, मॉइश्चुराइजर आदि ही नहीं हैं बाकायदा फाउंडेशन, कंसीलर, लिप कलर, लिप ग्लॉस आदि भी हैं। बाजारवाद यदि पुरुषों के लिए भी गोरेपन की क्रीम लाया है तो पुरुषों का रवैया भी "मैं तो सज गया रे सजनी के लिए" हो रहा है।

पहले हिन्दी में महिला दर्शकों के लिए रोने-धोने वाली फिल्में बनाई जाती थीं। विज्ञापनों में लिखा रहता था साथ में रुमाल लेकर आएँ। हिन्दी फिल्में आज भी ग्लीसरीन के आँसुओं और चाशनी भावुकता से भरी होती हैं। मगर महिला दर्शकों को खींचने के लिए अब पुरुष नायकों को भी सिक्स पैक एब बनाने होते हैं। हीरोइनें ही नहीं हीरो भी, कहानी की तथाकथित माँग पर अंग प्रदर्शन करते नजर आते हैं। यानी भारतीय स्त्री के लिए "इच्छा" शब्द उतनी बड़ी वर्जना नहीं रहा। कुछ ही समय पहले की बात है जब स्त्रियाँ पेंट-शर्ट पहन लेती थीं तो कहा जाता था- क्या मर्दों के कपड़े पहन लिए। जैसे कि ऊपर से ब्रह्माजी ने निश्चित करके भेजा हो कि फलाँ कपड़े स्त्री पहनेगी, फलाँ पुरुष। हालाँकि आज भी कई लोगों का यही खयाल है! मगर "जेंडर-बेंडर" तो हो चुका है। आज आपको शादी-ब्याह, पार्टियों में ऐसे कई पुरुष मिल जाएँगे जो जरी की कढ़ाई वाली रंगीन, सजीली शेरवानी के साथ दुपट्टे जैसा कुछ गले में धारण किए रहते हैं। नोंकार जूतियाँ, चेन, कड़ा, ब्रॉच पहने, बालों का पोनीटेल बनाए या कंधे तक बाल रखे पुरुष भी आपको मिलेंगे। कुछ सालों पहले ऐसा करने पर उन्हें जनाना वेशभूषा पहनने का ताना मिल सकता था। स्त्री-पुरुष विभाजन की रेखा और भी कई मामलों में धूमिल हो रही है। इसमें कोई किसी की बराबरी नहीं कर रहा। बस ये कि सभी को एक इंसान होने का हक है, जेंडर कोई भी हो। कोई भी कम या कोई भी ज्यादा नहीं है।

मगर उपरोक्त बातों का मतलब यह नहीं कि सब कुछ ठीक-ठाक हो गया है। मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुत सा भेदभाव अब भी मौजूद है। हालाँकि किसी के यहाँ कन्या जन्म लेने पर अब यह नहीं होता कि सौ प्रतिशत मामलों में मुँह लटक ही जाएगा, मातम मनेगा। अब किसी के यहाँ बेटी होने पर तीन प्रकार से प्रतिक्रिया मिलती हैं। एक तो यह कि लोक दिखावे के लिए ही सही "लक्ष्मी आई है" कहना पड़ता है, क्योंकि बेटी होने का मातम मनाने पर अब लोग लानतें भेजते हैं। दूसरी यह कि कुछ पालकों को सचमुच खुशी भी होती है, संतान बेटा हो या बेटी। यानी बिटिया होने पर लड्डू खिलाने और बधाई स्वीकार करने वाले भी हैं। मगर सबसे खौफनाक है प्रतिक्रिया नंबर तीन, पहली बिटिया हो जाए तो अगले गर्भधारण में जन्मपूर्व लिंग जाँच करवाने के लिए क्या तिकड़म भिड़ाएँगे, इसकी तैयारी होने लगती है! दुःखद सत्य यह है कि तमाम कानूनों की उपस्थिति के पश्चात प्रतिक्रिया नंबर तीन यानी भ्रूण लिंग जाँच करवाने की इच्छा रखने वाले पालकों और परिवार वालों की संख्या ज्यादा है। धूमधाम वाली देवी-पूजाओं और महिलाओं की प्रगति की तेज रफ्तार के बावजूद ऐसा क्यों है यह सचमुच सोचने की बात है।

महिलाओं के प्रति हिंसा, दहेज-प्रताड़ना, महिलाओं को "डायन" बताना, नेतृत्व में बहुत कम हिस्सेदारी देना आदि बहुत चीजें हैं, उनकी योग्यता को स्वीकार करने में अहंकार आड़े आना, जिन पर पार पाना अभी बाकी है। दहेज-कानून का दुरुपयोग करने वाले भी हैं, मगर हर वक्त इसका हवाला देना उन महिलाओं के सच को नहीं ढँक सकता जो सचमुच प्रताड़ित हैैं। हमारे यहाँ महिला-कल्याण के लिए कई कानून भी हैं, योजनाएँ भी हैं। इस सबसे काफी कुछ निकल भी रहा है। मगर अब भी बहुत तगड़ी सामाजिक इच्छाशक्ति की जरूरत है ताकि ग्रामीण, कस्बाई और छोटे शहरों की स्त्रियाँ अशिक्षा, अन्याय और रूढ़िवाद की चपेट से मुक्त हो सकें। इन सबको शिक्षा, स्वास्थ्य और सहज जीवन का अधिकार मिले।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 2 मार्च 2011

शादी तो शानदार थी मगर...!

प्रसिद्ध अभिनेता चार्ली चैप्लिन के नाती साठ वर्षीय मार्क जॉपलिन ने बावन वर्षीय टेरा टिफेनी से शादी की। उल्लेखनीय यह है कि उन्होंने भारत आकर शादी की, पूरे हिन्दू रीति-रिवाजों के साथ। यूँ तो कई विदेशी इन दिनों भारत आकर राजस्थान आदि की लोकेशन पर शादी करते हैं, मगर अधिकांश ऐसा मजमेबाजी के लिए करते हैं। नाच-गाना, रॉयल वेडिंग, महल-वहल उन्हें रिझाता है। भारत में शादियाँ इतनी शानदार और विस्तृत होती हैं कि विदेशियों को यह सब कुछ लुभावना लगता है। हालाँकि मार्क जॉपलिन सिर्फ शादी हेतु ही भारत नहीं आए, वे वैसे भी भारतीय संस्कृति से बेहद जुड़ाव रखते हैं। संत तुकाराम के कीर्तनों पर आधारित उनकी किताब प्रकाशित हो चुकी है। तुलसीदास के वे अनुरागी हैं। टेरा भी हरिकथा में भाग लेती हैं।

यह पढ़कर भारतीय गर्व से फूले नहीं समाएँगे कि हमारी संस्कृति में पगा उल्लास-आनंद, मिलनसारिता, कला-प्रेम, मोहक रस्मो-रिवाज बाहरी लोगों को भी इतना आकर्षित करता है। मगर ठहरिए, यह गर्व करने से पहले हम अपना राष्ट्रीय चरित्र भी देख लें, जो हमारी छवि को धूमिल करता है। जब शादी-ब्याह की बात चली है तो उसी के उदाहरण से हम अपनी विसंगतियाँ देखें। अमेरिका में पढ़ने वाला एक लड़का अपने चचेरे भाई की शादी अटेंड करने के लिए हिन्दुस्तान आया था। चूँकि वह बाहर रह चुका था इसलिए उसने अपने विदेशी दोस्तों की नजर से चीजों को देखना शुरू किया। फूलों की सजावट, दूल्हे की शेरवानी, दुल्हन का श्रृंगार, सबके हाथों में रची मेहँदियाँ, गहने, पांडाल, खूब गाना-बजाना, नाचना, खाना-पीना सब कुछ उसने आनंद से चहकते हुए रिकॉर्ड किया अपने दोस्तों को दिखाने के लिए। मगर कुछ देर में उसे लगा रिकॉर्डिंग तो निर्जीव चीज होगी, क्यों न अगले छः माह बाद होने वाली अपनी बहन की शादी में वह अपने दोस्तों को "इंडिया" बुलाए। यहाँ की "एक्जोटिक" शादी दिखाने के लिए। मगर थोड़ी ही देर बाद उसने अपना यह फैसला बदल लिया। किसी काम से वह किचन एरिया में पहुँचा तो गंदगी देखकर उसका भेजा फिर गया। फिर बुफे के वक्त उसने लोगों को जिस गंदगी से खाते और गंदगी फैलाते देखा, और बाद में कप-प्लेट धुलते देखा, उससे उसे लगा वह अपने विदेशी मित्रों को यह भारत दिखाने नहीं बुला सकता। हीरे-मोती के जेवरातों में लकदक करती सेठानियाँ, बड़ी-बड़ी कारें, महँगे डेकोरेशन वाली शादी में भी ऐसी घटनाएँ होती हैं कि लाखों के फूल बिछाकर शादी करने वाले पीछे भयानक गंदगी छोड़ कर जाते हैं। यदि कोई ज्यादा बड़ा सेठ या ज्यादा ताकतवर आदमी है तो वेन्यू देने वाला सिक्यूरिटी डिपॉजिट में से भी नहीं काट सकता। शादी में करोड़ों खर्च करने वाला गंदगी फैलाकर भी अपने पावर का इस्तेमाल करके महज हजारों का सिक्यूरिटी डिपॉजिट बचाने के चक्कर में रहता है। उनके मेहमान ने पान की पीक थूक दी और जगह देने वाले ने शिकायत की तो सामने वाला अपना वीआईपी कार्ड दिखाकर उल्टा उसके सिर पर चढ़ सकता है। एक-दो बार तो बड़ी होटल में भारी सजावट के साथ भव्य पार्टी चल रही थी और होटल के पिछवाड़े से आती पिछली शादियों में फेंके गए पत्तल-दोनों और सड़ रही जूठन की बदबू भीतर तक आ रही थी। भारत में यह भी आम है कि जरा भी ताकत आई तो आदमी सार्वजनिक उद्यान में पार्टी कर लेगा, अपना काम होते ही इस जगह से मुँह फेर लेगा, पीछे छोड़ी गई गंदगी की तरफ ध्यान दिलाओ तो आँखें दिखाएगा। यह तो हुई रईसों की बात। सामान्य आदमी भी कहीं भी तंबू ठोक लेता है, किसी भी वक्त जोर-जोर से लाउडस्पीकर बजाता है। बंद करवाने की कोशिश करो तो झगड़ा करने लगता है। जुलूसों और पार्टियों के बाद पीछे छोड़े गए डिस्पोसेबल कप, आइस्क्रीम की चम्मचें, जूठन के टुकड़े आपको सड़कों पर फैले हुए दिख जाएँगे। जब तक हममें राष्ट्रीय भावना और साफ-सुथरेपन की संस्कृति नहीं आती तब तक शानदार शादियों पर गर्व करना व्यर्थ है।

- निर्मला भुराड़िया