बुधवार, 5 जनवरी 2011

शब्द जब साथ छोड़ जाएँ रंग काम आएँ

इंसान के मन-मस्तिष्क में हर पल कई तरह की तरंगें उठती रहती हैं। बहुत-सी हलचल, थोड़ी-सी उठापटक, थोड़ी-सी खटपट हर वक्त चलती है। सामान्य इंसान इसी के साथ जीता है। मगर जब भावनात्मक उद्वेग का समय आता है तो दिमाग की खलबली बहुत बढ़ जाती है, बेचैन कर देने की हद तक। दुःख, दर्द, क्रोध आदि नकारात्मक चीजें तो उद्वेग हैं ही, अधिक खुशी की अवस्था भी उद्वेग ही है। "इतनी खुशी हुई कि बर्दाश्त के बाहर" ऐसी उक्तियाँ भी मुहावरों में हैं। खुशी के मारे रातभर नींद नहीं आई या फलाँ का लॉटरी खुलने की खबर सुनकर हार्ट फेल हो गया या फलाँ खुशखबरी सुनकर बौरा गया जैसी चीजों के भी दुर्लभ ही सही, उदाहरण हैं। यानी कि अधिक खुशी भी भावनाओं की समतल अवस्था नहीं उद्वेग ही है। उद्वेग कोई भी हो यदि अभिव्यक्त कर दिया जाए तो स्थिर हो जाता है। खुशी एक ऐसा उद्वेग है जो हमेशा अभिव्यक्त किया जाता है, बाँटा जाता है। खुशी में लोग गाते-बजाते हैं, नाचते हैं, हँसते हैं, एक-दूसरे से बोलकर व्यक्त करते हैं। और भी कई कला रूपों में खुशी अभिव्यक्त होती है। इससे खुशी उद्वेलित खुशी से शांत-समतल खुशी में बदल जाती है और इंसान सुखपूर्वक उसका रस लेता है।

असल मुश्किल तो नकारात्मक उद्वेगों के साथ है। खुशी के साथ गर्व जुड़ा होता है। मगर नकारात्मक उद्वेगों के साथ अक्सर शर्म भी जुड़ी होती है। अतः ऐसे उद्वेग को लोग मन में रख लेते हैं। फिर आपके साथ खुशी बाँटने को तो लोग मिल भी जाएँगे, दुःख बाँटने वाला कौन होगा। दुःख में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई आपकी बात सुनने के लिए तैयार है, मगर भाषा आपका साथ छोड़ देती है। अपनी बात कहने के लिए आपको शब्द नहीं मिलते। आप घटना का वर्णन तो कर देते हैं, मगर एहसास फिर भी नहीं बता पाते। ऐसे में व्यक्ति की मदद के लिए आती है आर्ट थैरेपी। गीत, संगीत, नृत्य के जरिए तो आर्ट थैरेपी की ही जाती है, पेंटिंग भी आर्ट थैरेपी का एक बड़ा हिस्सा है। इसमें जरूरी नहीं कि मरीज बड़ा चित्रकार हो। बस उसे रंग और पेंसिल आदि दे दिए जाएँ तो वह जो कुछ शब्दों में नहीं कह पाया, रंगों में अभिव्यक्त करता है। इससे उसका जी ऐसा हल्का हो जाता है, जैसे कुप्पी में भरी जहरीली गैस निकल गई हो। दुनिया के कई भागों में बलात्कार पीड़िताओं, डिप्रेशन के मरीजों, युद्ध पीड़ितों, शरणार्थियों आदि को आर्ट थैरेपी में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ताकि उन्हें बुरी यादों से छुटकारा पाने में मदद मिल सके। कुछ चिकित्सा तो इसी से हो जाती है कि वे अपनी पीड़ा अभिव्यक्त कर देते हैं। इससे आगे आर्ट-थैरेपिस्ट की मदद ली जाती है जो इस आधार पर विश्लेषण करता है कि व्यक्ति ने कौनसे रंगों का इस्तेमाल किया है, क्या आकृतियाँ बनाने का प्रयास किया है। उसकी आकृतियों में कौनसे मनुष्य, पशु या प्रकृति के कौनसे प्रतीक आते हैं। यह पीड़ित व्यक्ति की सफल चिकित्सा की ओर एक बहुत बड़ा कदम होता है।

आर्ट थैरेपी का एक और सबसे बड़ा पहलू यह है कि कला में तल्लीनता ध्यान के समकक्ष होती है। इससे उद्वेलित, पीड़ित मन को स्वाभाविक तौर पर ही शांति मिलती है। कलाएँ आँखों को ही सुंदर नहीं लगती, मन को भी सुंदर लगती है।

- निर्मला भुराड़िया

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