मंगलवार, 29 नवंबर 2011

नर्म, नाजुक नन्हा मन


जरा सोचिए कभी आपको अपने नन्हे से बच्चे को चुटकुला सुनाने की इच्छा हो तो, कैसे सुनाएँगे? तो वह भाषा की गुत्थियाँ समझता है, जीवन के वे विरोधाभास जो हँसी उत्पन्ना करे। दरअसल, वह जीवन के बारे में कुछ भी नहीं समझता। मगर फिर भी हम उसे मनोरंजन हास्य रस से वंचित नहीं रख सकते। अत: सदियों से हमने अपनी-अपनी संस्कृति के अनुरूप उसे चुटकुला सुनाने का कोई कोई तरीका निकाल रखा है। जैसे यह कि हम उसकी नन्ही हथेली अपने एक हाथ से पकड़ेंगे, दूसरे हाथ की उँगली उसकी नन्ही हथेली पर गोल-गोल घुमाते हुए कहेंगे कोई ऐसी अटपटी बात, 'आला-गोला, दूध कतोला, पीजा।" फिर उसकी उँगलियों पर गिनाएँगे ये मम्मी की, ये पापा की, ये दादा की, ये दादी की... वगैरह। और फिर खास बात यानी चुटकुले का पंच आएगा अंतिम पायदान पर- हम बच्चे के हाथ पर अपनी उँगलियाँ चलाते हुए कहेंगे आया-आया, रामजी का घोड़ा आया... आया... आया। आया-आया कहते हुए जब हमारी उँगलियाँ बच्चे की काँख तक पहुँचने को हांेगी तो गुदगुदी की प्रत्याशा में बच्चा हँसने लगेगा। पारंपरिक बुद्धिमत्ता में नन्हे बच्चे से संवाद करने के कई तरीके हैं। वे भाषा पर इतना निर्भर नहीं करते जितना कि स्पर्श, ध्वनि, मुखमुद्रा, देहमुद्रा आदि पर निर्भर करते हैं। बच्चे की बात कहने और बात सुनने दोनों की समझ इन्हीं पर निर्भर करती है, क्योंकि उसके पास अनुभव, दुनियादारी, शब्द आदि की संपदा नहीं है। मगर हाँ, इस उम्र में उसकी संवेदनाएँ हर तरफ से खुली होती हैं, बेहद ग्रहणशील होती हैं। आस-पास की हर हरकत, आस-पास वालों का व्यवहार उस पर गहरा असर करता है। इसीलिए हम बच्चे से बातचीत करने में देहमुद्रा और व्यवहारजनित भाषा का उपयोग अधिक करते हैं, जैसे छोटे बच्चे के साथ 'ता" या पिकी बू खेलना। इसमें आपको ता कहते हुए अपना चेहरा एक बार छुपाना है, एक बार उजागर करना है। बच्चे को यह होममेड सिनेमा इतना रोचक लगता है कि वह साथ खेलने वाले से बार-बार यह गेम दोहराने को कहता है। बच्चा थोड़ा बड़ा होता है मगर इतना बड़ा नहीं कि भाषा में गुँथे उपदेश समझ सके, तब उसे मनोविज्ञान की भाषा के जरिए समझाया जाता है जैसे कोई बच्चा गिर गया, उसे चोट तो नहीं लगी पर वह गिरने भर से आहत है, तो माँ-बाप इस घटना से ध्यान भटकाने के लिए उसे कहेंगे, 'देख-देख चींटी मर गई।" और बच्चा खुद को भूलकर चींटी को ढूँढने लगेगा। तात्पर्य यही कि बच्चे की संवेदनाएँ अत्यंत जाग्रत होती हैं और ऊपर जो उदाहरण आए उन सब में उसकी नर्म, नाजुक संवेदनशीलता का सकारात्मक उपयोग था। मगर बच्चा बहुत कोमल और अपने आस-पास कहे-सुने, घटित होने वाले वाकयों, आवाजों, स्पर्शों आदि के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। यह बात उस वक्त भी समझ कर रखना जरूरी है जब हम उसके साथ नकारात्मक व्यवहार कर रहे हों, क्योंकि उस पर बेहद बुरा असर पड़ सकता है। जैसे आज्ञा मनवाने के लिए लोग बच्चे को डराते हैं कि 'बिल्ली जाएगी, तुझे काट खाएगी।" 'बाबा जाएगा, तुझे उठा ले जाएगा।" 'चुप हो जा नहीं तो तुझे बाथरूम में बंद कर दूँगी वगैरह।" बच्चा नहीं जानता ये सब धमकियाँ हैं। उसके मन में किसी अज्ञात बाबा का, तीखे पंजे वाली काली बिल्ली का भयानक और विकराल स्वरूप समा जाता है। हो सकता है कि उसकी कल्पना में तब जो भयानक बिल्ली आए वह सामान्य आकार की भी हो, दैत्याकार विराट स्वरूप हो। इस तरह हम बच्चों में हैदस भर देते हैं। बड़े होकर बचपन की ये बातें किसी बात का फोबिया बन जाती हैं। यह भी हो सकता है कि ऐसा बच्चा कल को आक्रामक या फिर परले दर्जे का दब्बू किशोर बन जाए। हम, जो बच्चों को पढ़ाने के लिए अच्छे-अच्छे स्कूल ढूँढते हैं, उन्हें व्यक्तित्व निर्माण की कक्षाओं तक में भेजते हैं, वे यह सामान्य सी बात क्यों भूल जाते हैं कि बच्चे के साथ नकारात्मक व्यवहार करना, उसके व्यक्तित्व को बिगाड़ना है। स्वयं के ही किए-धरे पर चोट करना है।

निर्मला भुराड़िया

हम हिन्दुस्तानी जीरोइन नहीं हीरोइन विद 'वी" फिगर


ईसा पूर्व 1500 साल के मिस्र में स्त्रियों का गंजा रहना सुंदरता का प्रतीक माना जाता था। इसके लिए स्त्रियाँ मुंडन करवाती थीं; राजरानियाँ तो बिलकुल सफाचट वाले मुंडन के पश्चात भी सिर पर कोई बाल रह जाते तो सोने के प्लकर से उसे निकलवाती थीं। इसके पश्चात उनकी खोपड़ी क्रीम-तेल लगाकर महीन कपड़े से चमकाई जाती थी। इस तरह पॉलिश से चमकाई बालरहित खोपड़ी वाली महिला सुंदरतम मानी जाती थी। अब इसे क्या कहें? पसंद अपनी-अपनी, ख्याल अपना-अपना। हर देश, हर समुदाय, हर काल के रहन-सहन और सुंदरता के अपने-अपने मापदंड होते हैं। समय के साथ वे बदलते भी हैं। आज हम वैश्विकता के जिस काल में रह रहे हैं, वहाँ रहन-सहन में आदान-प्रदान बहुत बढ़ गया है। यह एक सुखद परिवर्तन है। आखिर जहाँ जो अच्छा और सुविधाजनक है उसे दूसरी जगह क्यों अपनाया जाए?

आज अमेरिकी औरतें पेंट-सूट के साथ गले में रेशमी स्कार्फ बाँधती हैं, जँचे तो नाक में छेद भी करवा लेती हैं, तो पूर्वी देशों में पाश्चात्य परिधान शौक और सुविधा दोनों के लिए पहने जाते हैं। लेकिन बात यदि केश, कपड़ों और अन्य चीजों की है तो आदान-प्रदान बढ़िया है, मगर सुंदरता के जो पैमाने नस्लगत हैं उनका अपनी बनावट की व्यावहारिकताओं के मद्देनजर होना ही अच्छा है। दूसरों के फीते से अपनी देह नहीं नापी जा सकती, जो कि हम पिछले कुछ सालों से कर रहे हैं और जिसका खामियाजा हमारी लड़कियाँ एनोरेक्सिया बूलिमिया और एनोरेक्सिया नर्वोसा जैसी बीमारियों की चपेट में आकर चुका रही हैं। भारतीय लड़कियाँ नस्लगत रूप से कर्वी हैं, उनकी देह का आकार-प्रकार है। सीधी रेखा-सी देह और सुपर फ्लैट बेली यानी बिलकुल सपाट पेट हमारे यहाँ सुंदरता की परिभाषा में कभी नहीं रहा। मगर जबसे हमारी लड़कियाँ दूसरों के फीतों से नपकर विश्व सुंदरियाँ बनीं वे आम भारतीय लड़कियों का आदर्श बन गईं। आम भारतीय युवक भी खपच्ची-सी देह को सुंदर मानने लगे। हीरोइनों में जीरो फिगर की होड़ लग गई और जल्द ही यह रोग आम भारतीय स्त्रियों में गया। चूँकि नस्लगत रूप से यह संभव नहीं अत: अधिकांश औरतें स्वस्थ देह के लिए ठीक से डाइट प्लान करने की बजाय पिचकी देह पाने के लिए भूखों मरती रहती हैं। मगर हाल ही में जो फिल्म रिलीज हुई है 'डर्टी पिक्चर" उसमें कहानी की माँग होने की वजह से विद्या बालन ने अपनी कमर उजागर की है। विद्या अपने शास्त्रीय सौंदर्य, प्रभावशाली अभिनय और बेहतरीन संवाद अदायगी के लिए पहले ही जग जीत चुकी हैं। अब वे इस स्थिति में हैं कि वे जो भी करें अन्य स्त्रियों के लिए आदर्श हो। विद्या जीरो फिगर वाली चपटी कन्या नहीं हैं। उनकी देह में भारतीय सौंदर्य है, कल तक जिसे मोटा कहकर नकारा जा रहा था, आज विद्या बालन के आत्मविश्वास की वजह से वह फिर सुंदरता की श्रेणी में गया है। कहा जा रहा है अब जीरो फिगर नहीं 'वी" फिगर चलेगा, विद्या का 'वी" दरअसल, स्त्रियों को कहना चाहिए थैंक्यू-विद्या और अपनी देह को अव्यावहारिक परिणामों के खातिर जलाना बंद कर देना चाहिए और डायटिंग और व्यायाम का सही अर्थ समझकर अच्छे स्वास्थ्य और सुघड़ देह के लिए उचित जीवन जीना चाहिए क्योंकि थुलथुल मोटापा अच्छा है जबरिया कुपोषित सीकियापन।

निर्मला भुराड़िया

वाह ताज, आह इंडिया!


कहा जाता है दुनिया में दो तरह के लोग हैं- एक जिन्होंने ताजमहल देखा है, दूसरे जिन्होंने ताजमहल नहीं देखा। सचमुच ताज की खूबसूरती अवर्णनीय है, यह हम क्या पूरी दुनिया मानती है। पिछले दिनों एक शादी में आगरा जाना हुआ। आगरा जाएँ और ताज देखें ऐसा कैसे हो सकता है। अत: एक बार नहीं बार-बार ताज देखने गए। एक बार दिन में भीड़-भाड़ के समय, सामने की ओर से ताज देखा और लंबी कतार में लगकर मकबरे तक पहुँचे। फिर एक दिन दोपहर को यमुना पार, पीछे की ओर से ताज को नए कोण से देखा, एक मुगल गार्डन में जाकर, जहाँ विद्रोही औरंगजेब ने पिता शाहजहाँ के सफेद झक ताज के जवाब में काला ताज बनाने की शुरुआत की थी। आगरा के लाल किले में जाकर उस जगह से भी ताज देखा, जहाँ औरंगजेब ने शाहजहाँ को कैद किया था और जहाँ से कैदी शाहजहाँ रोज ताज के दीदार करते थे। मगर एक चीज छूट रही थी। कहते हैं पूरनमासी की रात को चाँदनी में नहाए ताज को देखना अपने आप में अपूर्व अनुभव है। रात्रि दर्शन के लिए ताजमहल सिर्फ पूरनमासी के ही दिन खुला रहता है। बाकी समय रात में बंद रहता है। हम तो सिर्फ चौदहवीं की रात वहाँ थे, पूरनमासी की दोपहर तो वहाँ से लौट आना था। सुप्रीम कोर्ट की हिदायत के कारण आगरा प्रशासन इस मामले में सख्त है। उसे होना भी चाहिए, क्योंकि ताज की सुरक्षा का सवाल है। खैर, चौदहवीं की चाँदनी में नहाया ताज देखने का तरीका हमने खोजा। आगरा की बस्ती में कुछ घर और कुछ होटल ऐसे हैं, जिनकी छत से ताज दिखता है। ऐसी ही एक होटल की छत पर हमने जाने की व्यवस्था की। इस होटल में बहुत से विदेशी ठहरे थे। इसकी छत पर एक खुला रेस्टॉरेंट था। एक-दो विदेशी तो ऐसे थे, जो ऐसी जगह बैठे थे, जहाँ से ताज को एकटक निहार सकें। ऐसा ही एक विदेशी ताजमहल के सामने भी हमने देखा था, जो घंटों से बैठा ताज की तरफ एकटक देखे जा रहा था, मंत्रमुग्ध होकर। इन्हें देखकर अपनी ऐतिहासिक विरासत पर गर्व हुआ। मगर यह गर्व अधिक नहीं टिक पाया। दूसरे दिन आगरा घूमने निकले। आगरा की सड़कों पर इतना अव्यवस्थित यातायात और इतनी गंदगी है कि यहाँ आपको कोई विदेशी दिखेंगे तो नाक पर रूमाल बाँधे, गंदगी से बचते-बचाते चलते मिलेंगे। आगरा की गलियाँ और यमुना नदी तो गंदी है ही, जिसके किनारे भैंसों के तबेले हैं। आगरा फोर्ट में भी एक-दो जगह पान की पीक दिखाई दी। गाइड से पूछा, यह कैसे हुआ, तो उसने बताया कि भीतर घुसने वाले दर्शकों की तो जाँच कर ली जाती है, मगर रेड फोर्ट के सरकारी कर्मचारी ही कई बार खुद गुटखा लेकर भीतर चले जाते हैं! अंदर घुसने वालों की जाँच में भी कई बार ढील-पोल होती है। सच तो यह है कि हम जिस गाड़ी में घूमने निकले थे उसका ड्रायवर भी बार-बार खिड़की से मुँह निकालकर पच्च-पच्च पीक थूकता था। मना करो तो अपनी पान में बदरंग खीसें निपोरकर बेशर्मी से हँस देता था। यह सब देखकर यह मानने पर मजबूर होना पड़ता है कि हम हिन्दुस्तानियों का नागरिकता-बोध कितना कमजोर है। यह आगरा शहर की ही बात नहीं है, भारत के गाँव-गाँव और शहर-शहर में गंदगी और फूहड़पन का साम्राज्य है। हिन्दुस्तानी पालक और शिक्षक खुद भी किसी सार्वजनिक सफाई व्यवस्था का ध्यान नहीं रखते और ही माता-पिता अपनी संतति को यह संस्कार देने का कोई प्रयास करते हैं। यदि कार में किसी बच्चे ने चॉकलेट खाया, तो माँ फट से खिड़की खोलकर, सड़क पर रैपर फेंक देगी। इसे सम्हालकर बाद में कचरा पेटी में डालना है यह करने और बच्चे को यह सिखाने का कष्ट हिन्दुस्तान में बहुत कम लोग करते हैं। नतीजा होता है विदेशियों के सामने शर्मिंदगी और हमारे अपने स्वास्थ्य को लगातार संकट। हमारा देश पहले ही गर्म जलवायु देश है ऊपर से इतनी गंदगी है, अत: यह वातावरण की गंदगी से फैलने वाली महामारियों का देश भी हो गया है। आखिर कब हम यह समझेंगे?

निर्मला भुराड़िया

एक डुबकी आकाशगंगा में!


' अलकेमिस्ट" के लेखक पॉलो केलो को कौन पुस्तक-प्रेमी नहीं जानता। हाल ही में उन्होंने अपने पसंद के शहर के बारे में एक लेख लिखा है। यह शहर है स्पेन का सेनटियागो डी कॉम्पोस्टेला। यहाँ संत टियागो का मकबरा है। उन्हें यहाँ एक ऐसी खुली जगह में दफनाया गया था, जहाँ रात में चमकीले तारों की जगमग रोशनी बिखरी होती है। कॉम्पोस्टेला का मतलब होता है-स्टारलिट फील्ड, यानी कह लें तारों से जगमग जगह। यहाँ आने के लिए लोग सोलहवीं सदी में भी पैदल यात्रा करते थे और आज भी। आसमान में टिमटिमाते तारे इन पदयात्रियों का पथ प्रदर्शन करते हैं। पॉलो की बचपन से ही लेखक बनने की इच्छा थी और उनका दावा है कि सेनटियागो कॉम्पोस्टेेला की प्रथम यात्रा ने ही उन्हें लेखक बनाया और उनकी पुस्तक पिलग्रिमेज अस्तित्व में आई। वे कहते हैं मॉन्स गॉडी की पहाड़ी से आकाशगंगा की रोशनी में नहाए शहर और इसके पवित्र कैथेड्रल को देखना एक अद्भुत अनुभव है। इस स्थान की यात्रा इंसान को बदल देती है। एक पवित्र सुख देती है। हो सकता है पॉलो ने गुलजार साहब का वह गाना भी सुना हो ' जा, जा जिंद शामियाने के तले, जा जरीवाले नीले आसमान के तले। जय हो...", क्योंकि आखिर यह गाना ऑस्कर अवॉर्ड प्राप्त है। तात्पर्य यही कि निस्सीम आसमान में टिमटिमाते इन करोड़ों सितारों की चादर इंसान के मन को जादुई पुलक से भरती है।

हमारे अधिकांश त्योहारों में स्त्रियाँ चाँद को अर्घ्य देकर अपना व्रत खोलती हैं। वे देवरानी-जेठानी, सखी-सहेलियों के संग मिलकर आँगन और छत पर जाती हैं। हँसती-खिलखिलाती हैं और चंद्र दर्शन करती हैं। चाँद, सूरज, पेड़, नाग आदि की पूजा के बहाने स्त्रियाँ सिर्फ प्रकृति को पूजती आई हैं, बल्कि इस बहाने वे बाग-बगीचों में जाती हैं, प्रकृति का सान्निाध्य पाती हैं। इससे उनका तन-मन स्वस्थ होता है। हाल ही में एक सज्जन की आँखों में तकलीफ थी, डॉक्टर ने व्यायाम बताया, दाएँ देखो, बाएँ देखो, ऊपर-नीचे देखो, दूर देखो, आसमान में चाँद की तरफ भी कभी-कभी देखोे! मगर बहुमंजिला इमारत में रहने वाले को क्या चंद्र दर्शन इतनी आसानी से नसीब है? यह उपक्रम करने के लिए मकान मालिक से छत की चाबी माँगनी पड़ेगी और वह देने में आना-कानी करेगा। उसे डर होगा कि भला आदमी कहीं चाँद देखने के बहाने आत्महत्या तो कर लेगा? बढ़ते शहरीकरण की यही मुश्किल है। लोग प्रकृति का सामीप्य खो रहे हैं। करवाचौथ भी अब होटल में हो जाती है, स्त्रियाँ वेब पर चाँद देख लेती हैं। इससे चंद्र दर्शन का असल मकसद यानी प्रकृति का सामीप्य यहीं खत्म हो जाता है। जावेेद अख्तर की बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं-

'ऊँची इमारतों से मेरा मकान घिर गया,

कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए।"

मनुष्य ने बहुत-सी चीजों पर विजय प्राप्त कर ली। मगर मृत्यु पर नहीं। दु: दूर करने की गोली भी अब तक नहीं बनी है। दु: तो सहना ही होता है। मगर प्रकृति में बहुत शक्ति है दु: हरने की। दु: चाहे दूर हो पाए, मगर निसर्ग का सान्निाध्य इंसानी पीड़ा को कम करने की ताकत अवश्य रखता है। हमारी जीवनशैली कितनी ही आधुनिक, कितनी ही नई क्यों हो जाए, प्रकृति के सान्निाध्य के अनमोल क्षण अवश्य निकाले जाना चाहिए।

निर्मला भुराड़िया