मंगलवार, 2 नवंबर 2010

लौट चलें अब प्रकृति के पास

घर के बाहर बिल्व वृक्ष है। शहरों, कस्बों यहाँ तक कि गाँवों में भी फलदार पेड़ों की संख्या इतनी कम हो गई है कि यह पेड़ हर गुजरते राही के लिए आकर्षण का केन्द्र है। गर्मियों में जब यह पेड़ पके सुनहरे बिल्व फलों अथवा ‍िबल्लों से लदा होता है तब तो इसकी छटा ‍िनराली ही होती है। वह गर्मी की एक शाम थी। कॉलोनी में पानी का सरकारी टैंकर अभी-अभी अफरा-तफरी मचा कर गया था। पानी की हायतौबा और खाली बालटियों की सखी टंकार ने हम लोगों की एक टोली को चर्चा का सूत्र थमा ‍िदया। पर्यावरण प्रेमी मित्रों के बीच बहस होने लगी, रीतते जलस्रोतों पर, धरती के गर्म होने पर पर्यावरण का नाजुक संतुलन ‍िबगड़ने पर। इस तरह के मसलों पर सुझाव देने और दोष मढ़ने दोनों का ही सिलसिला जारी था कि बहस कर रहे अतिथियों के साथ आया एक नन्हा बच्चा, जो अब तक आँगन में खेल रहा था, बड़ा उत्साहित हो भीतर दौड़ता हुआ आया और अपने पिता को बताने लगा, 'देखो पापा, यहाँ तो गेंद का पेड़ है, पेड़ पर कितनी सारी बॉल्स लगी हैं।' बच्चे के इस भोलेपन पर सब हँसने लगे तो वह शरमाकर बाहर चला गया। उसका आशय बिल्व पत्र से था। मगर बच्चे की बात ने एक ही बात याद दिला दी।

सत्तर-अस्सी के दशक तक के बच्चों के लिए खिलौने सचमुच पेड़ों पर लगते थे और वे खिलौने बैटरी से नहीं, कल्पनाशक्ति से चलते थे। यही नहीं, उस पूरी जीवनशैली में बहुत कुछ ऐसा था, जो बाद के दशकों में एंटी-मॉर्डन कहकर नकार दिया गया। मगर आज फिर सादगीपूर्ण एवं पर्यावरण सम्मत जीवनशैली की जरूरत महसूस की जाने लगी है। मोटा खाओ, मोटा पहनो, प्रकृति का सान्निध्य प्राप्त करो। हवा और धूप की बिजली बनाओ। चिड़ियाओं को बचाओ, साइकल चलाओ आदि नारे लगने लगे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में एक नजर पीछे डालें तो काफी ‍िनकट के अतीत में प्रकृति से करीबी, पर्यावरण रक्षा और सादगी के सूत्र ‍िमल जाएँगे।

साठ-सत्तर के दशक की स्कूली बच्चियाँ कनेर के फलों से खेला कारती थीं। वे 'पाँचे' कहलाते थे। कनेर के फल तोड़ने पर पतली लकड़ी जैसी पीली-सी सख्त गिरी ‍िनकला करती थी। इन गिरियों को लड़कियाँ इकट्‍ठा कर लेती थीं। इससे उन्होंने जो खेल रचा था वह किसी ब्रेन-जिम से कम नहीं था। पाँचे जमीन पर बिखेरना, एक हाथ से पाँचा उछालना, दूसरे से जमीन पर थपकी देना फिर हर पारी में मुट्‍ठी के पाँचों की संख्या बढ़ाते चलना। इसमें काफी एकाग्रता, फुर्ती, दृष्टि संतुलन, मुट्‍ठियाँ संभालने की दक्षता की जरूरत होती थी। पाँचे खेलती लड़कियों को हँसी भी बहुत आती थी, क्योंकि दक्षता की जरूरत के बावजूद क्लबों वाली औपचारिकता की वहाँ कोई जगह नहीं थी। मुफ्त के पाँचे, मुफ्त की ठिठौली। न किसी का अहसान चढ़े, न किसी का धन लगे। न धूल-धुआँ, न बिजली-बैटरी की जरूरत है।

इसी तरह इमली के बीच जिन्हें मालवी में 'चीँ' कहा जाता है, इन चींओं का भी बहुत मजेदार चौसर बनता था। घर के बाहर के ओटलों (चबूतरों) पर बच्चे चॉक या पेम से चौखाना खाका बनाते और उस पर चीओं की मोहरें रखकर बड़ा बुद्धिमत्तापूर्ण एक खेल 'अष्ट चें पे' खेलते थे। यह स्थानीय चौसर की ऐसी बिसात थी जिसे कहीं भी खींच लो, कभी भी मिटा दो। न प्रकृति को खतरा, न जेब पर वजन। आम की गुठली से बबूल के काँटे तक प्रकृति से जुड़ी हर चीज इन बच्चों की कल्पनाशक्ति के ‍िनशाने पर होती थी।

इन दिनों प्लास्टिक द्वारा पर्यावरण बिगड़ने का बड़ा शोर है। मगर धरती को कचराघर बनाने वाला यह प्लास्टिक सिर्फ फैक्टरियों से ही नहीं निकला है, हमारी बदली हुई जीवनशैली से भी निकला है। आज लाख अपीलें की जाएँ या उपदेश दिए जाएँ कि कागज की थैली का उपयोग करें, मगर प्लास्टिक लोगों को आसान लगती है। यह आदत में शुमार हो गई है। ऐसे में याद कीजिए उस जमाने के बाबूजी लोगों की कपड़े की वह थैली। वह थैली थी कि जादूगरी। तहों पर तहें करके छोटी-सी बना ली जाती और जेब में डाल ली जाती। सुबह नियम से खाली थैली जेब में लेकर ‍िनकले बाबूजी शाम को थैली में कुछ न कुछ भरकर ही लौटते। फल, सब्जी, जामुन, खिरनी, गजक या घर का सौदा कुछ भी। थैली वही, समान सदा अलग। सप्ताहांत में थैली धुल जाती, इस्तिरी कर ली जाती। थस तरह रोज-रोज हर सामान के लिए प्लास्टिक की थैली की जरूरत नहीं थी। कपड़ा पर्यावरण मित्र ही था। मगर धीरे-धीरे उस थैली से लोगों को गँवारूपन की बू आने लगी। वे इस थैली पर हँसने लगे और यह मित्र थैली गायब हो गई। इसकी जगह प्लास्टिक की चिकनी थैलियों ने ले ली। ये पर्यावरण को बिगाड़ने लगीं, मगर इसकी फूहड़ता पर कभी कोई नहीं हँसा ! उलटे उसकी पैरवी में तरह-तरह की दलीलें दी जाने लगीं।

इसी तरह एक और पर्यावरण मित्र प्रथा याद आती है, वह है पत्तलों में भोजन। ये पत्तों की बनी वे थाली-कटोरियाँ हैं, जो बायोडिग्रेडेबल है। खाओ और फेंक दो। मिट्‍टी में घुल-मिल जाएगी। आजकल भारत में शादी-ब्याह में ‍िजस गंदगी से प्लेटें मंजती-धुलती हैं और कीटाणु फैलाती हैं उसे देखते हुए 'यूज एंड थ्रो' पत्तलें अच्छी थीं। मगर जाने क्यों ये अच्छी भली पत्तलें तक एक दिन के आयोजनों से बाहर ठेल दी गईं। इन दोनों-पत्तलों जगह टेंट हाउस वालों की प्लेटें और प्लास्टिक की यूज एंड थ्रो प्लेटें आ गईं।

अभी-अभी विदेश में होने वाले एक फैशन शो के बारे में जानकारी मिली कि यह ऑर्गेनिक वस्त्रों का फैशन शो है। इसमें शुद्ध कपास से बने और वेजिटेबल डाई से रंगे कपड़े होंगे। रैंप पर खादी टाइप के भी कई शो हमारे यहाँ भी हो चुके हैं। इन दिनों फिल्मी सितारे जुवार, बाजरे, मोटे आटे की रोटी, ब्राउन राइस, ब्राउन ब्रेड खाते हैं। अपने फार्म हाउस में लोग ऑर्गेनिक उत्पाद उगाते हैं। धूप खाने समुद्र किनारे के पर्यटन स्थलों पर जाते हैं। पता नहीं तपती धरती ने प्रकृति की महिमा समझा दी है या पर्यवरण प्रेम जताना फैशन हो गया है, मगर जो भी हो जीवनशैली में पर्यावरण की रक्षा और प्रकृति से नजदीकी शामिल करना आज समय की माँग है। इस समय में जब सादगी सबसे बड़ा आडंबर बन कई हो, सचमुच की सादगी करना सचमुच बुद्धिमानी की बात होगी।

- निर्मला भुराड़िया

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेल के आवरण को खाली कर लट्टू बनाया जाता था, जिसमें छेद कर देने पर घूमते समय तेज आवाज करता था.. बढ़ती हुई आबादी बहुत बड़ी समस्या है.. बहुत अच्छा लेख.

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  2. बहुत अच्छा आलेख।...जाने कहां गए वो दिन, जब लोग प्रकृति के ज्यादा निकट थे।

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