शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

चमत्कारिक द्रव्य!

जल की क्षमता के बारे में एक विचित्र-सी थ्योरी पढ़ी, जो ‍िवचित्र किन्तु सत्य भी हो सकती है। यह थ्योरी कहती है कि पानी आवाजों को रिकॉर्ड करता है! मान लीजिए कि कोई पुरानी कोठी, हवेली या खंडहर है। वहाँ घर के अतीत से जुड़ी आवाजें किसी-किसी को कभी-कभार सुनाई पड़ती हैं तो डरने की जरूरत नहीं, यह कोई भूत-प्रेत का चक्कर नहीं बल्कि जरूर जमीन के भीतर, नीचे कहीं पानी है जिसमें अतीत की कुछ ध्वनियाँ दर्ज हैं! दरअसल, पानी हमारे आसपास का ही होते हुए भी इतना चमत्कारिक द्रव्य है कि इसके बगैर धरती तो क्या स्वर्ग की कल्पना भी अधूरी है। अरबी लोगों की स्वर्ग की कल्पना में बड़ी-बड़ी आँखों वाली हूर समाहित है, जो पलक झपकते ही पानी का गिलास लेकर हाजिर हो जाती है! पानी है तो मरुस्थल भी नखलिस्तान है। जल है तो धरती पर जीवन है। पृथ्वी का बड़ा भाग जल है, छोटा हिस्सा भू-भाग है। हमारे शरीर में भी काफी प्रतिशत जल का ही है। खैर जल की महिमा तो एक विस्तृत ललित निबंध की माँग करती है। मगर फिलहाल यहाँ हम एक दूसरे ही पानी की बात करना चाहेंग। वह है 'आँख का पानी'।

इन ‍िदनों जल संकट की काफी बात हो रही है। पानी बचाना पर्यावरणविदों ही नहीं आम जनता के लिए भी एक बड़ा अभियान है। लेकिन एक और पानी है वो है आँख का पानी। हमारी सामाजिकता पर यह एक बड़ा जल संकट मँडरा रहा है कि आँख की शर्म की जगह खुली बेशर्मी ने ले ली है। हम एक 'मैं' केंद्रित संस्कृति की ‍िगरफ्त में आ रहे हैं, जो समाज से कुछ भी साझा नहीं करना चाहती, सिर्फ अपनी जेब भर लेना चाहती है। संस्कृति जो लिहाज को ताक पर रखकर खुद को फिर-फिर रेवड़ी बाँटती है। यूँ छुपी हुई आत्मकेन्द्रितता हर वक्त मनुष्य में कुछ न कुछ रूप में रहती आई है। मगर सामाजिकता के नाते इंसान हमेशा इस आत्मकेन्द्रितता पर काबू पाने की कोशिश करता आया है और कुछ नहीं तो जमाने के लिए ही सही। संस्कारित व्यक्ति स्वयं की गरिमा की रक्षा के लिए भी स्वयं को बड़प्पन की दिशा में साधता रहा है। मगर आज टुच्चई नॉर्म बन गई है और बड़बोलापन बाजार का मूल मंत्र बन गया है। लिहाजा 'सिर्फ मैंने ही यह किया', ‍'सिर्फ हम में ही यह गुणवत्ता है', 'सबसे पहले हम पहुँचे' जैसी उक्तियाँ चलने वाले स्लोगन बन चुकी हैं। खुद के लिए झूठे श्रेय लेना, खुद की झूठी तारीफ करना, अपने बारे में बढ़-चढ़कर बोलना आज मार्केटिंग कहलाता है। 'मैं ये हूँ', 'मैं वो हूँ' तक भी ठीक था अब तो बात यहाँ तक आ गई है कि जो कुछ हूँ वो मैं ही हूँ। पहले आप वाली विनम्रता भी खो-सी रही है। दु:खद यह है कि यह सबकुछ बड़ी बेशर्मी से हो रहा है। गैंडे की खाल और बेशर्मी गुणों में गिनी जा रही है। सादगी, संवेदनशीलता, विनम्रता और आँख का पानी न रहा। यह सामाजिकता जल संकट है। इससे मानवता सूख रही है और करुणा प्यासी मर रही है।

इस पानी के लिए त्राहि-त्राहि हो उससे पहले ही अच्छा हो हम यह दोहा फिर याद कर लें- 'रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती मानस चून।' यानी पानी है तो आब है। हमारी सामाजिकता यह आब खोने का जोखिम नहीं ले सकती।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 24 नवंबर 2010

Soul of a poet

Sensitivity of a butterfly
Adrian Khare

It is sometimes said that the interview is a flat format. This is merely a matter of perception. In the interview numerous details about the interviewee are brought out. Here talking to Adrian Khare a poet ,a literator, journalist, music lover and a "vagabond", Nirmala Bhuradia carefully pulls out the roots that have gone into his making.

When did you begin writing poetry ?

Well, it must have been around 1965-66 or thereabouts. Most of what I wrote at that time was Nature oriented...Naturally, I had yet to acquire depth and variety at the time.

Do you think poetry can be taught or poetry explained by a teacher ?

Taught by a teacher ? No, no. But explained, yes, provided the guide has the soul of a poet and the sensitivity of a butterfly. Otherwise, everyone will be trying to sail a boat on dry land.
Do you agree that a poet or an artist must have a Muse?

Yes. But the Muse need not necessarily be a person. It can be an inspiration powerful
enough to drive the artist\poet to create a piece of work. Personally speaking it is either Dylan Thomas and his Fern Hill or
Arthur Rimbaud and his Drunken Boat I would say that they are my "forever Muse". I would never say that one was an alcoholic and the other a *junkie*. And what about Neil Young?

You are a music lover and have interviewed a fine musician like Louis Banks...What have your impressions been of him and his music?

He is a humble man and has made his way through deep waters. This genius from Nepal owes his success to his father who would rap him on the knuckles while teaching him to play the piano. Banks has stood his own playing the biggest names in jazz. A keyboardist and pianist par excellence

You have also interviewed M.F.Husain...Can you say something of your interaction with him ?
I believe Mr. Husain is as much of a showman as he is an artist. I was
working with the tabloid BLITZ at the time and he insisted on greeting me that Indian way, with a 'namaste'. It seemed rather odd for a man who had incensed so many Indians by depicting deities in the nude. There seems no limit to what Husain was painting .

Husain has a lot to say in his other paintings, not so for Pritish Nandy. There was a time when he turned out paintings not
without zest. He’s made a niche for himself in the film world and is preoccupied with his image. When this happens, the artist dies. But there is one exhibition when Nandy worked with Samir Mondal. It was Mondal's rendering of Pritish's portrait with some of his poetry accompanying them It was a well presented show at the Sophia Art Gallery. I cannot think of anything more significant from Nandy after that.

Are any of the stories that you have done while in BLITZ still close to your heart ?

O
h, yes! One was the coverage of a ghastly incident. Briefly, it was the murder of a girl inside an examination hall. She was burned to death ny a man who was said to be her "lover”. It was reported that he later committed suicide. The other was a piece of the Mondal- Nandy show which still stands out in my mind.
Mondal was brought straight from a village in rural Bengal and made a place for himself in the art world in Mumbai. Nandy was directly responsible for this.The uniqueness of this exhibition was that it was rendered entirely on glass.

Who is your favourite author? And your poem ?

I find it hard to think of an author better than J.G.Ballard whose writing is like sharp edged hallucinations. Dylan Thomas and Arthur Rimbaud are two poets I have already mentioned. No serious reader can overlook their "Fern Hill" and "The Drunken Boat" respectively. But to the new generation of readers I would definitely recommend Adil Jusawalla and Dom Moraes. There are so many books for them to read. They may dismiss Jusawalla and Moraes as old hat.They are entitled to their own opinions but they should read Khaled Hosseini "A Thousand Splended Suns"

Your book of poetry is titled "Majoun" what does this title mean?

I was pondering over a title when I came across this word in a book called "Report from the Bunker" by Victor Bockris who has spent time with Burroughs in New
York
's Bowery area where Burroughs lived at the time. Majoun is a sweet made of flour, honey and hashish. It is kneaded to a consistency of dough. It is then rolled out into thin wafers and dried in the sun. It is best consumed with a hookah and coffee. Burroughs says it as being extremely potent. So why "Majoun"?


Simply because the poems have been drawn from many sources, just as majoun is made up of various ingredients. Add to this the cut up and spliced method.

What are you working on at present ?

This is a state secret -- no, seriously, it is a book of poems. yes, AGAIN!

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

अन्न- ध्‍यान!

एक नए अनुसंधान ने बताया है कि टीवी के सामने बैठकर खाने से मोटापा बढ़ता है। इस वैज्ञानिक निष्कर्ष का सामान्यजन तक पहुँचना जरूरी है, क्योंकि टीवी के सामने बैठकर खाना नए जमाने की नई कुरीति बन चुकी है। न सिर्फ यह कि टीवी के सामने बैठकर लोग जाने कितना चुटुर-पुटुर खा जाते हैं, बल्कि कई लोग तो अपना मुख्य भोजन भी रसोई या डाइनिंग रूम में करने की बजाए टीवी के सामने ही थाली मँगवा लेते हैं। कई घरों में डाइनिंग रूम में ही टीवी रखा होता है। कई जगह डाइनिंग रूम कम ड्राइंगरूम में टेलीविजन रखा होता है। दोनों को बाँटने के लिए कोई मामूली पर्दा तक नहीं लगा होता। अत: खाना और टीवी देखना साथ-साथ चलता है। विदेशों में कुछ लोगों को यह चस्का होता है कि वे हाथ में ‍िचप्स, चॉकलेट अथवा पॉपकार्न का पैकेट रखे बगैर टीवी नहीं देख पाते। कुछ खाते-खाते टीवी देखने का उन्हें इतना अनुकूलन हो जाता है। नतीजा होता है काउच-पोटेटो सिंड्रोम। यानी काउच पर पड़े-पड़े, खाते-खाते टीवी देखकर मुटा जाना।

वैज्ञानिकों का कहना है ‍िक खाना सिर्फ पेट से जुड़ी प्रक्रिया नहीं है, मस्तिष्क से जुड़ी प्रक्रिया भी है। अत: पेट भरने पर भूख की तृप्ति का सिग्नल मस्तिष्क से प्राप्त होता है, लेकिन जब आप टीवी देखते हुए, कोई किताब पढ़ते हुए, फोन पर बात करते हुए खाते हैं तो मस्तिष्क भोजन के अलावा भी किसी और कर्म में उलझ जाता है और सिग्नल देने में देर कर देता है यानी आप ज्यादा खा जाते हैं। इसका उपाय बताया गया है - माइंडफुल ईटिंग अथवा सचेत भोजन क्रिया। सचेत भोजन का अर्थ यह है कि व्यक्ति एकचित्त से भोजन ग्रहण करें। भोजन की मात्रा के प्रति सचेत रहे। स्वाद और रस के साथ शांतचित्त हो भोजन ग्रहण करें। इससे खाया-पीया ठीक से दर्ज होगा और सामान्य मात्रा में ही पेट भर जाएगा।

दुनियाभर के धार्मिक विश्वासों में भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। ईसाइयों में भोजन पूर्व ग्रेस, इस्लाम में खाने से पहले दुआ व हिन्दू धर्म में भी भोजन पूर्व प्रार्थना का रिवाज रहा है। कई स्कूलों में भी बच्चों को भोजन पूर्व प्रार्थना करवाई जाती है, ताकि आप शांत और एकाग्र होकर भोजन ग्रहण करने को तैयार हो जाएँ और सब लोग एकत्रित होकर नियत स्थान, नियत समय पर भोजन करें। भोजन कक्ष या घर के ‍िनयत भोजन स्थल पर भोजन करने से चलते-फिरते खाने की आदत को भी काफी हद तक टाला जा सकता है। कंपल्सिव इंटिंग करने वाले मन का खालीपन भरने के लिए कुछ न कुछ खाते रहते हैं। भोजन स्थल में बैठकर पेटभर रुचिपूर्वक खाने से हर वक्त मुँह चलाने की आदत पर विराम लग सकता है। यदि आप पढ़ते-पढ़ते भी खा रहे हैं तो फिर मनोरंजन में लिप्त होने का नुस्खा भी कंपल्सिव इंटिंग को नहीं टाल सकता। आप शयनकक्ष में भी खाने का सामान ले जा रहे हैं तो फिर मनोवैज्ञानिक रूप से आपके लिए डाइनिंग रूम और शयनकक्ष अलग नहीं है। तब बार-बार खाने के लिए न आपको रसोईघर में जाने का प्रयत्न करना पड़ेगा, न इस मानसिक संकोच से लड़ने का कि यह
कोई खाना खाने का वक्त है या यह कोई खाने की जगह है क्या? नतीजा यह कि भोजन से जुड़ा रस और अध्यात्म बेखयाली में भकोसने में बदल जाएगा और यह भकोसना मोटापा और अन्य बीमारियों में।

डाइनिंग रूम में सचेत भोजन के भी अपने नियम है। जैसे भोजन के वक्त लड़ाई-झगड़े की बात न की जाए, शिकायतों का पुलिंदा भोजन के वक्त के लिए ही न रखा जाए। भोजन सामग्री आने के पूर्व हल्की-फुल्की किस्म की, उत्फुल किस्म की बातें की जाएँ। भोजन ग्रहण करते वक्त कमोबेश मौन रखा जाए। जीवन के प्रति कृतज्ञता के साथ भोजन ग्रहण किया जाए। भोजन ग्रहण की प्रक्रिया में यह सकारात्मकता जोड़ लेने से भोजन बीमारियों का घर नहीं बनेगा अपितु शक्ति और ऊर्जा देगा।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 17 नवंबर 2010

जाने भी दो यारों!

एक युवक ने एक सेकंडहैंड कार खरीदी, पड़ोस में रहने वाले एक साठ वर्षीय व्यक्ति से। उन सज्जन ने युवक को कार तो दे दी थी, मगर वे उससे मुक्त नहीं हो पाए थे। वे आते-जाते रोज कार के बारे में युवक को हिदायतें देते रहते। 'बेटा आज तुमने गाड़ी पर कपड़ा नहीं मारा।' या 'अरे लाल रंग क्यों करवा लिया इस पर तो कत्थई रंग जमता', 'धीरे चलाओ। टकरा दोगे तो बोनट की जय हो जाएगी', 'पीछे के दरवाजे पर खरोंच किसने मार दी' वगैरह-वगैरह। इन सज्जन के इस दखल से युवक इतना परेशान हो गया कि उसने गाड़ी किसी और को बेच दी।

वे सज्जन इतनी-सी बात नहीं समझ पाए कि अब वह चीज उनकी नहीं है, अब उन्हें इस पर आसक्ति नहीं रखना है। कहते हैं डिटेचमेंट अथवा अनासक्ति को साधना एक बहुत बड़ी कला है और यह कला सुंदर, निर्द्वंद्व और जटिलता रहित जीवन जीने की कला है। अनासक्ति संसार से भागने का नुस्खा नहीं है, न ही संसार त्याग इसका ध्येय है। जिन चीजों पर हमारा इख्तियार नहीं है, उनका मोह न रखना पीड़ा से बचाता है। खुद को भी और दूसरों को भी। इसी तरह दूसरों से ज्यादा अपेक्षा करना गुलामी है। आत्म उत्थान के लिए दूसरों पर ‍िनर्भर न रहना, अपने गुणों के साथ ही अपनी गलतियों की भी ‍िजम्मेदारी लेना असली आजादी है।

मगर अनासक्त होने का मतलब अप्रासंगिक होना भी नहीं है। मान लीजिए बेचने वाले सज्जन गाड़ी के प्रति 'अब वह दूसरे की चीज है' मानकर अनासक्ति धर चुके होते, इस बीच गाड़ी खरीदने वाला युवक किसी ‍िदन बीमार हो जाता तो अनासक्ति धर लेने वाले सज्जन यह नहीं कह सकते थे ‍िक भई अब मैं गाड़ी को हाथ नहीं लगाऊँगा, युवक जाने युवक का काम जाने। उचित होगा ‍िक ऐसे में वे स्वयं ड्राइव करके युवक को अस्पताल ले जाएँ।

दुनिया में किसी की भी मर्जी से चाँद और सूरज नहीं उगते। न हर चीज पर हम अधिकार जता सकते हैं, न दूसरों का अपनी मर्ची से चला सकते हैं। ऐसे में कई स्थितियों के प्रति स्वयं को अनासक्त करना उचित होता है, परंतु अनासक्त होने का मतलब न तो अप्रासंगिक होना है, न ही गैर जिम्मेदार होना है। अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता बनी रहे, परंतु आप मोहांध न हों, यह संतुलन साधना बाजीगरी है। एक ऐसी बाजीगरी, जो ताउम्र साथ देती है।

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

सीधा चुनो या उल्टा तुम्हारी मर्जी!

बच्चे छोटो और नन्हे जरूर होते हैं, मगर आधे-अधूरे नहीं होते। छोटा बच्चा भी एक सम्पूर्ण इंसान होता है। अपनी आवश्यकताओं के लिए जरूर वह बड़ों पर ‍िनर्भर होता है, अनुभवहीनता के चलते वह दुनियादारी की समझ भी बड़ों को देखकर ही विकसित करता है, मगर इसका मतलब यह नहीं कि एक बच्चा चाबी वाला गुड्‍डा या गुड़िया होता है। हमारे यहाँ बच्चों को अमूमन ऐसा ही समझा जाता है। वह भी यह कहकर कि यह सब उसकी भलाई के लिए ही तो है। लिहाजा बच्चों को सुधार-सुधारकर दुनियादार बनाने का क्रम हर वक्त जारी रहता है, यह बात समझे बगैर कि जिन बातों को हम अनुशासन और मार्गदर्शन का नाम दे रहे हैं, मनोविज्ञान के स्तर पर कहीं वह कठोरता, दबाव और कैद तो नहीं? माँ-बाप तो छोड़िए पड़ोसी तक बच्चों को तथाकथित रूप से सुधारने की फिक्र में रहते हैं। ऐसा ही एक किस्सा है। एक बच्ची शाम को पड़ोसन के घर पढ़ने जाती थी। दो-चार दिन में ही पड़ोसन आई और बच्ची की माँ से कहने लगी 'अरे आपने कभी ध्यान नहीं ‍िदया आपकी बच्ची तो उल्टे हाथ से लिखती है। मार-मार के शुरू में ही छुड़ा दो, नहीं तो गलत आदत पड़ जाएगी।'

यह हमने कैसे तय कर लिया कि सीधे हाथ से ही लिखना सही है? यह थोड़ा देखा-देखी वाला मामला है। दुनिया में अधिक प्रतिशत लोग सीधे हाथ से काम करते हैं इसलिए यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सीधे हाथ से काम करना ही सही है और लिखने आदि के लिए उल्टा हाथ वापरना गलत। व्यक्ति राइट हैंडर होगा या लैफ्ट हैंडर यह प्रकृति तय करती है।

मस्तिष्क का बायाँ गोलार्द्ध शरीर के सीधे तरफ के हिस्से को संचालित करता है अत: जिनका डॉमिनेंट हाथ सीधा होता है वे सीधे हाथ से सब काम करते हैं। यहाँ तक कि उनकी दाँईं आँख, दायाँ पाँव, दायाँ कान भी ज्याद तेज होता है। जिन लोगों के मस्तिष्क का दायाँ गोलार्द्ध अधिक सक्रिय होता है उनके शरीर के बाएँ हिस्से अधिक संचालित होते हैं। कुछ लोग क्रॉस वायर्ड भी होते हैं। उनके दोनों गोलार्द्ध सक्रिय होते हैं। ऐसे लोग सीधे हाथ से लिखते हो तो फोन उल्टे कान से सुनते हैं या खाना दाढ़ के उल्टी तरफ से चबाते हैं। इन लोगों को दाएँ-बाएँ में बहुत गफलत होती है। इसका मतलब यह नहीं कि यह लोग नाकारा होते हैं। बल्कि यह कि इन लोगों में मस्तिष्क की कई पगडंडियाँ और रास्ते काम कर रहे होते हैं, जो शायद दूसरों में सोए पड़े हों। अत: इनमें कई गजब के प्रतिभाशाली भी निकलते हैं।

कहने का तात्पर्य यही कि हमारी सामाजिकता नहीं हमारे दिमाग की व्यक्तिगत कार्यप्रणाली यह तय करती है कि कोई व्यक्ति राइट लेटरेलिटी वाला होगा, लेफ्ट लेटरेलिटी वाला या क्रॉस वायर्ड। ऐसे में अपने बनाए कायदे थोपने और बच्चे को तरीका बदलने पर मजबूर करने पर बच्चे का दिमाग उलझन में फँस सकता है या अच्छा-भला बच्चा दब्बू बन सकता है। यही नहीं हमारी अतार्किक कठोरता दुनिया को किसी लियोनार्डों दा विंची या आइंस्टिन से वंचित कर सकती है।

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

नो डिप्रेशन: हटाइए अवसाद का अंधेरा - भाग 3

अवसाद से उबरने लगें या उबर चुकें तब

* संतुलित, पौष्टिक, नियमित भोजन लें।
* शराब, सिगरेट, तंबाकू, पान-मसाला त्याग दें।
* शक्कर और चाय-कॉफी में कटौती करें।
* नियमित व्यायाम, सैर करें। तेज गति से पैदल चलें।
* ध्यान, प्राणायाम जैसी रिलेक्सेशन तकनीक अपनाएँ।
* अपने-आपको शारीरिक व मानसिक रूप से व्यस्त रखें।
* पौधों की निराई-गुड़ाई या घर के फर्नीचर की सफाई जैसे शारीरिक कार्य करें। खेलों में रुचि हो तो फुटबॉल, बैडमिंटन, क्रिकेट इत्यादि खेलें। चाहें तो बच्चों के साथ गिल्ली-डंडा ही खेलें। कोई आपको व्यावसायिक परफॉरमेंस की ‍चिंता तो करना नहीं है। यह शारीरिक-मानसिक व्यस्तता न सिर्फ आपका मनोरंजन करेगी, बल्कि आपको जिंदगी में 'हिलगाए' रखेगी। आपके खुशी के हारमोंस का स्तर भी बढ़ाएगी।
* अपना हास्यबोध कायम रखें। आपके जीवन के बड़े वाले तनाव कौन-से हैं, उन्हें सुझाव के द्वारा स्वयं को समझाएँ कि जीवन का यह भी एक पक्ष है।
* अपनी बॉडी क्लॉक या शरीर की घड़ी को डिस्टर्ब न करें। बिना बात देर तक जागने, सरे-शाम सो जाने आदि आ‍दतों से बचें। रात को नियत समय पर सो जाएँ। सुबह-सवेरे नियत समय पर उठें, पर नींद में कटौती न करें। ऐसा चार्ट बनाएँ कि सही समय पर सोने-उठने में ही आपकी कम से कम सात-आठ घंटे की नींद पूरी हो जाए। नींद को नियमित और पूरी रखने से आपके मिलेनिन नामक हारमोन का चक्र दुरुस्त रहेगा, जैविक घड़ी ठीक रहेगी, इससे सामान्य स्वास्थ्य और स्वाभाविक प्रसन्नता बनी रहेगी।

अवसादग्रस्त को परिजनों की सहायता-
* मरीज की मन:स्थिति समझने का प्रयास करें। उसे उसकी स्थिति के बारे में ताने न मारें। न धिक्कारें, न खिल्ली उड़ाएँ। वस्तुस्थिति समझकर अपने वैज्ञानिक सोच का परिचय दें।
* मरीज के प्रति नरम रुख रखें, सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार रखें। उसके प्रति कठोरता, कटुता न बरतें। यह समझें कि अभी वह सामान्य स्थिति में नहीं है।
* यह मरीज को उसकी कमियाँ गिनाने का समय नहीं है। उसका आत्मसम्मान बढ़ाने और हीनताबोध से ‍िनकलने में उसकी मदद करें।
* यह समझें कि बीमार होने में उसकी कोई गलती नहीं है। उसे कोसें नहीं। उसकी नकारात्मकता की तात्कालिक है, यह समझें। हालाँकि यह सब आपके धैर्य की परीक्षा है। पर यह ध्यान रहे। आपका धीरज ही उसका इलाज है, आप तो सामान्य अवस्था में हैं, उसे दोष देकर उसकी ग्लानि न बढ़ाएँ।
* उसे किसी मनोचिकित्सक को ‍िदखाएँ। मनोचिकित्सक के पास जाने में ‍िझझकें नहीं। मरीज ‍चिकित्सा के ‍िलए तैयार न हो तो उसे बहला-फुसलाकर इलाज हेतु तैयार करें। उसके द्वारा दवा फेंक देने की आशंका हो तो अपने हाथ से दवा दें।
* घर का वातावरण हलका-फुलका, आनंदमय बनाने की कोशिश करें। मरीज के साथ कैरम आदि जैसे मनोरंजक खेल खेलें। उसे पिकनिक पर ले जाएँ। हो सके तो किसी हिल स्टेशन आदि की यात्रा भी की जा सकती है, ताकि उसके आसपास का माहौल कुछ समय के लिए बदल जाए। इससे नीरस जीवन के साथ ही ‍िदमाग का भी थोड़ा ट्रैक बदलेगा। मरीज कुछ समय को ही सही, निर्जीव-नकारात्मक निराशा से उबरेगा।

क्यों जरूरी है दवाइयाँ-
अवसाद की बीमारी एक शारीरिक-परिवर्तन ही है और एंटी डिप्रेसेंट दवाइयाँ मरीज के शरीर में रसायनों के कम हुए स्तर को पुन: दुरुस्त करती हैं। हाँ यह दवाइयाँ थोड़ा धीरे-धीरे प्रभाव करती हैं। मगर तीन-एक हफ्ते में इनका असर नजर आने लगता है। ये दवाइयाँ लेना बहुत जरूरी है। मगर ‍किसी ‍िचकित्सक की देखरेख में।
चिकित्सक दवाइयों के अलावा अन्य थैरापी भी करते हैं। जैसे 'साइकोथैरापी', जिसमें मरीज का 'मनोविश्लेषण किया जाता है। उसकी कठिनाइयों को, उसके उलझ गए धागों को समझा-सुलझाया जाता है। 'कॉगनीटिव थैरापी', जिसमें जीवन के प्रति मरीज के नजरिये, उसकी भावनाओं को समझा जाता है। 'बिहेवियर थैरापी', जिसमें मरीज के व्यवहार को सकारात्मक ‍िदशा में मोड़ा जाता है। 'इंटरपर्सनल थैरापी', जिसमें यह समझा जाता है कि मरीज की परेशानी कहीं ‍िकसी रिश्ते में दरार की वजह से तो नहीं। तब चिकित्सक परामर्शदाता द्वारा उस रिश्ते में पुल बनाने की पहल और प्रयास किया जाता है। 'फैमिली थैरापी', मरीज के परिवार की मदद ली जाती है। यह सब बहुत-से परीक्षणों के बाद तैयार, बेहद वैज्ञानिक प्रविधियाँ हैं, मगर इनका लाभ लेना तो तभी संभव है न कि जब आप चिकित्सक से सम्पर्क करें।

'कोई होता जिसको अपना, हम अपना कह लेते यारों। पास नहीं तो दूर ही होता, लेकिन कोई मेरा अपना।' शायर गुलजार का यह फिल्मी गीत है। यह बिल्कुल सटीक है। जीवन में हर व्यक्ति को भावनात्मक आधार चाहिए। जिनके पास परिवारजों और ‍िरश्तों का सपोर्ट सिस्टम नहीं होता, उनके अवसाद में जाने के ज्यादा आसार होते हैं। किसी से घनिष्ठता, किसी से खुलकर अपनी बात कह पाने की सुविधा शॉक एब्जॉरवर का काम करती है। अत: अपनों से सम्पर्क रखें। लगाव रखने की क्षमता वाले मित्र बनाएँ। कभी मित्रों से ‍िदल की बात करें, फोन लगाएँ, घूमे-फिरे, मिले-जुलें, अच्छा व्यवहार करें, बदले में अच्छा व्यवहार पाएँ। इससे मन हलका रहेगा।
साथ ही मेडिकल चिकित्सा भी जरूरी है, क्योंकि डिप्रेशन मस्तिष्क में एड्रेनलीन और सिरोटॉनिन जैसे रसायनों की कमी से होता है, जिनके जरिये मस्तिष्क की कोशिकाएँ आपस में बात करती है। अवसादरोधी दवाइयों एवं चिकित्सक द्वारा सुझाई गई अन्य दवाइयाँ उपरोक्त रसायनों का संतुलन पुन: स्थापित करती हैं। अत: चिकित्सक के मार्गदर्शन में इन्हें लेने में ‍िझझक कैसी?

(समाप्त)

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 10 नवंबर 2010

नो डिप्रेशन: हटाइए अवसाद का अंधेरा - भाग 2

मेजर डिप्रेशन या यूनीपोलर डिप्रेशन
इसमें व्यक्ति की अवस्था के बिगड़ने के लक्षण बहुत गंभीर होते हैं। यह कुछ महीनों या सालभर तक चल सकता है। अवसाद के ये दौरे जिंदगी में और कई बार भी आ सकते हैं। इसमें कुछ लोग तो अपने-आपको औरों से काट लेते हैं। मगर कुछ विध्वंसात्मक, चिड़चिड़े, बुरा व्यवहार करने वाले हो जाते हैं और वे ये कतई नहीं समझ पाते ‍िक वे नकारात्मक व्यवहार कर रहे हैं।

क्रॉनिक डिप्रेशन : इसे dysthymia भी कहा जाता है। यह थोड़ा हलका अवसाद होता है। मगर यह सालों तक चल सकता है। ऐसे व्यक्ति नाखुश रहते हैं। जीवन का आनंद उठाने के बजाय चिड़चिड़े हो जाते हैं। ये कभी भी मेजर डिप्रेशन में जा सकते हैं।

एटिपिकल ‍िडप्रेशन : इस डिप्रेशन को पहचानना थोड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि इससे घिरे व्यक्ति कभी-कभी खुश भी होते हैं। मगर ये जीवन के सामान्य व्यवहारों की अति भी कर सकते हैं। जैसे निरंतर खाते रहना, खूब ज्यादा सोना, अच्छा-खासा वजन बढ़ाना इत्यादि।

reactive, neurotic या psychotic depression में भी फर्क होता है। reactive depression भावनात्मक तनाव का परिणाम हो सकता है। neurotic depression शब्द का सामान्यतया इस्तेमाल ऐसे समय किया जाता है, जब तनाव या घटना के अनुपात में व्यक्ति की अवसादी प्रतिक्रिया काफी अधिक हो। इसमें ऐसा भी हो सकता है कि पूर्व में हुई या दबाई गई भावनात्मक पीड़ा की प्रतिक्रिया बाद में हो। मगर इनमें सबसे गंभीर psychotic depression माना जा सकता है, क्योंकि इसका कोई खास बाहरी करण नहीं ‍िदखाई देता। कई बार ‍िजंदगी में ‍िमले-जुले दबावों से भी अवसाद हो सकता है, जिसमें भावनात्मक तनाव, शारीरिक बीमारी या शरीर में हार्मोन परिवर्तन की वजह से अवसाद हो सकता है।

अवसादग्रस्त व्यक्ति स्वयं की मदद कैसे करें?
* परिजन इलाज की पहल करें तो उसे न ठुकराइए। स्वयं ही ‍िचकित्सकीय सहायता लेने का सोचा है तो मनोचिकित्सक के पास जाने में न शर्माएँ। इलाज अवश्य कराएँ।
* मन में यह ग्लानि न रखें ‍िक आपकी बीमारी कोई कमजोरी या कलंक है। किसी भी अन्य बीमारी की तरह यह भी ‍िबन बुलाए आ धमकती है। इसमें आपकी कोई गलती नहीं है।
* दवा ठीक वक्त पर बराबर लें। उसे फेंके या छुपाएँ नहीं।

थोड़ा सुधार होने पर
* लम्बे समय तक अकेले न रहें।
* नई रुचियाँ विकसित करने का प्रयास करें पुरानी रुचियों को सँवारने, ‍िनखारने का प्रयास करें, ताकि जिंदगी में चाव पैदा हो।
* अपने व्यक्तित्व की खूबियों पर भी कभी गौर करें। पीछे मुड़कर अपनी किन्हीं खुशियाँ, किन्हीं उपलब्धियों पर भी नजर डालें। चाहे वे छोटी हों या बड़ी।
* आपको नीचा दिखाने वाले, आप पर नकारात्मक टिप्पणी करने वालों से दूर रहें। अगर यह संभव न हो (जो कि अधिकांश मामलों में संभव नहीं होता) तो ऐसे लोगों की बातों पर ध्यान न ‍दें। उनकी टिप्पणियों को नजर अंदाज करें।
* छोटे-छोटे लक्ष्य निर्धारित करें, रोजमर्रा की छोटी-छोटी क्रियाओं में संलग्न होकर मन लगाने का प्रयास करें।
* दिन व्यतीत करने का सुव्यवस्थित टाइमटेबल बना लें, ‍िजसमें नहाने, खाने आदि का भी वक्त नियत हो, ताकि इच्छा न होते हुए भी आप अपने को खींचकर उठा लें और एक चक्र चल पड़े, भले कम गति से ही सही।
* सुबह टहलें, व्यायाम करें, बाहर निकलकर सूर्योदय, सूर्यास्त देखें। शाम को आसपास के बाग-बगीचे, मंदिर आदि में हो आएँ। (चाहें तो ‍िकसी को साथ लेकर) बच्चों को खेलते हुए देखें। छोटे बच्चों को खिलाएँ। सुबह पंछियों को दाना चुगाएँ।
* पुस्तकें पढ़ें, परन्तु भारी-भरकम फिलॉसफी वाली नहीं, न जीवन से विमुख करने वाली, जीवन को व्यर्थ बतानेवाली गहन आध्यात्मिक पुस्तकें, न ही दु:ख व निराशा व बोझिलता बढ़ाने वाली पुस्तकें। सकारात्मक विचारों को जगाने वाली, सरल उदाहरणों से बात समझाने वाली सरल, सादा ‍िकताबें पढ़ें। हँसी-मजाक के प्रसंग इत्यादि भी पढ़ सकते हैं।
* टीवी पर रुलाई-धुलाई वाली कहानियाँ, दुरभिसंधियों, षड्‍यंत्रों वाले धारावाहिक देखकर अपने मन को और न उलझाएँ।
* खुद को बताते रहें कि सब समय-समय की बात है। जीवन का यह दौर भी गुजर जाएगा।

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

नो डिप्रेशन: हटाइए अवसाद का अंधेरा

हममें से सभी कभी न कभी, किसी-किसी दिन खराब मूड में रहते हैं। जिंदगी है तो सुख-दुःख भी आता-जाता है। दुःखी होना किसी बुरी घटना का प्रभाव भी हो सकता है। आप "हैप्पी गो लकी' या खुशनुमा टाइप के हैं तो कभी-कभार आप बुझा हुआ-सा महसूस कर सकते हैं और आप सदा-विलापी या कुड़-कुड़ टाइप के हैं तो भी कोई न कोई बात तो आपको खुशी देती होगी। आप दोनों में से किसी प्रकार के भी हों, पर कभी-कभी उदासी भी आती होगी। मगर यह उदासी इतनी ठहर जाए कि व्यक्ति बिलकुल "निरानंद' या anhedonic हो जाएं। बोलना, गाना, फूल, चिड़िया, बच्चे या किसी चीज में उसकी रुचि न रहे। यहां तक कि पहले जिन चीजों में उसकी रुचि रही हो वे भी उसका मन न बहला पाएं। यहां तक कि सुबह बिस्तर से उठने का भी उसका मन न करे। मगर रात में नींद न आए। उसके नियमित कार्य भी ठप हो जाएं, क्योंकि उसमें ऑफिस जाना या घर की जिम्मेदारियां निबटाना तो दूर नहाने आदि की ही ऊर्जा नहीं बची है। तो यह अवसाद या डिप्रेशन हो सकता है।

डिप्रेशन के अन्य लक्षणों में हैं -
एकाग्रता की कमी, हीनभावना हो जाना, बेवजह ग्लानि महसूस होना, अपने आपको बिना कारण दोषी समझना, रुलाई आते रहना, छोटे-मोटे निर्णय तक लेेने की क्षमता खत्म हो जाना (जैसे कि दो में से कौन सी शर्ट पहनना है), वजन में अचानक कमी या बढ़ौतरी, भूख का खत्म हो जाना, बिना बात चिंतित और व्यग्र रहना, जीवन के प्रति किसी भी आशा का समाप्त हो जाना, बार-बार आत्महत्या के विचार मन में आना, बुरा-बुरा -सा लगना, सब कुछ उलटा सोचना, व्यर्थ महसूस होना, शरीर में जान ही नहीं ऐसा लगना। छोटी-छोटी बातों में गफलत होना या भूल जाना, आशा का समाप्त हो जाना, बार-बार आत्महत्या के विचार मन में आना इत्यादि। इसके साथ ही कई शारीरिक परेशानियां भी हो सकती हैं, क्योंकि डिप्रेशन एक साइकोसोमेटिक या मनोशारीरिक परिस्थिति है। इसलिए डिप्रेशन की अवस्था में बदन दर्द, पीठ दर्द, पेट की गड़बड़ियां हो सकती हैं। बढ़ी हुई धड़कन, तेज घबराहट महसूस हो सकती हैं, परंतु डिप्रेशन को सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि इसका कोई ब्लड टेस्ट नहीं है या कोई थर्मामीटर नहीं है, जो यह बता दे कि व्यक्ति को डिप्रेशन है।

यहां तक कि घबराहट और धड़कन भी महसूस होगी, हृदय परीक्षण में नहीं आएगी। फिर भी यह रोग वास्तविक है, जिसे लक्षणों के जरिए आराम से चिह्नित किया जा सकता है। चिह्नित किए जाने के बाद इसका इलाज भी किया जा सकता है। या यूं कहे इलाज किया ही जाना चाहिए। इसे अनुपचारित नहीं छोड़ा जाना चाहिए। मगर डिप्रेशन की पहचान और इसके इलाज में सबसे बड़ी अड़चन है शरीर विज्ञान के प्रति अज्ञान, डिप्रेशन को कलंक मानने और छुपाकर रखने की वृत्ति, जबकि अवसाद एक जैविक शारीरिक स्थिति है, जो जैव रसायनों के स्तर के उठते-गिरने से संबंधित है। अतः जैसे बुखार में रोगी का दोष नहीं, वैसे ही अवसाद पर भी उसका जोर नहीं। इसे इच्छाशक्ति की कमी या व्यर्ंिक्त की कमजोरी मानना गलत होगा। हां इस रोग से बाहर निकलने में जरूर इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ेगी। जैसे कि किसी भी बीमारी से लड़ने के लिए पड़ती है, बल्कि इसमें समाज और परिवार की इच्छाशक्ति और सदाशयता की भी जरूरत पड़ेगी, क्योंकि रोगी आपे में नहीं है। उसकी यह निश्र्चिंतता और अनमनापन उसके रोग का ही एक लक्षण मात्र है, उसकी कमजोरी नहीं। वैसे भी इच्छाशक्ति के बल पर उम्मीदें की जा सकती हैं। इच्छाशक्ति के बलबूते चुनौतियों ली जा सकती हैं, मगर जैव रसायन का संतुलन वाली शारीरिक स्थिति सुधारने के लिए सिर्फ भावनाएं नहीं, ठोस इलाज और औषधियां चाहिए, जो कि रोग को छुपाने से नहीं हो सकता।

जो यह सोचते हैं कि "अवसाद' होना शर्म की बात है या दिमागी कमजोरी, भावनात्मक दुर्बलता आदि की निशानी है, उन्हें यह ध्यान दिलाना होगा कि दुनिया के सबसे स्मार्ट, सबसे बेहतरीन, सबसे ज्यादा रणनीतिक और सबसे ज्यादा सृजनात्मक दिमागों का भी अवसाद से पाला पड़ चुका है। अब्राहम लिंकन और विंसटन चर्चिल जैसे संघर्षशील, चुनौतियों का मुकाबला करने की अपार शक्ति वाले राजनीतिज्ञ यदि डिप्रेशन के शिकार हुए तो वर्जीनिया वुल्फ, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, वॉन गॉग पाल जैसे सृजनशील लोगों पर भी अवसाद का आक्रमण हुआ। कहने का तात्पर्य यही कि इसे दिमागी या व्यक्तित्व की कमजोरी समझकर दबाया-छुपाया न जाए। रोगी की खिल्ली भी कदापि न उड़ाई जाए, बल्कि अन्य किसी भी बीमारी की तरह इसका सामना किया जाए, अन्यथा रोगी निर्जीव होने की हद तक निराशा की गर्त में जा सकता है या आत्महत्या भी कर सकता है, जो कि वह कहत रहता है तो कोरी धमकी समझकर खारिज कर दिया जाता है।

क्यों होता है डिप्रेशन
किसी का बिछड़ना, किसी की मृत्यु, रिश्तों का टूटना, पीड़ाजनक बचपन की स्मृतियां, भय या दबाव में जिंदगी गुजारना आदि दुःख अवसाद को उभाड़ सकते हैं। वंशानुगत रूप से भी व्यक्ति अवसाद के प्रति संवेदनशील हो सकता है। महिलाओं में मेनुपॉज, प्रसूति पश्र्चात इत्यादि स्थितियों में हारमोन संबंधी गड़बड़ियों से भी डिप्रेशन हो सकता है। ये हारमोनल डिप्रेशन की विशिष्ट स्थितियां हैं, जो इतनी आम हैं कि इनके नामकरण भी हैं। जैसे प्रसूति पश्र्चात के डिप्रेशन को पोस्ट पार्टम (post-partum) डिप्रेशन कहा जाता है। बायोकेमिकली डिप्रेशन न्यूरोट्रांसमीटर्स के स्तर की गड़बड़ियों से होता है। यह क्लिनिकल डिप्रेशन ही होगा। इसे ठीक उसी तरह देखना-समझना होगा, जैसे मधुमेह की तरह की हारमोनल बीमारियां।

कई प्रकार हैं डिप्रेशन के -
बायपोलर या मोनिक डिप्रेशन - इस तरह का डिप्रेशन चक्र में आता है। एक बार हारमोन का स्तर बहुत ऊंचा होता है तो दूसरी बार यह एकदम नीचे चला जाता है। यह वैकल्पिक होता है। जब हारमोंस का स्तर ऊंचा होता है, तब व्यक्ति अपने आपको सामान्य से बहुत ज्यादा ऊर्जावान महसूस करता है और जब हारमोन्स का स्तर नीचे जाता है तो बिलकुल नीचे चला जाता है और व्यक्ति सुस्ती, अनमनेपन और निराशा के फेज में चला जाता है। हारमोन स्तर के छलांग लगाने पर यदि ऐसा व्यक्ति सृजनात्मक है तो अपरिमित ऊर्जा के साथ अद्भुत सृजनात्मकता को अंजाम देता है। यह क्रॉनिक हाइपोमेनिया की स्थिति होती है, जो कि अक्सर सामान्य व्यक्ति के बजाय बेहदत बुद्धिमान व्यक्ति को होती है। बस इसमें खतरा यह है कि हारमोन स्तर नीचे आने पर यहीं अति सक्रिय, अति सृजनात्मक व्यक्ति अवसाद से घिर जाता है।

क्रमश:

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

लौट चलें अब प्रकृति के पास

घर के बाहर बिल्व वृक्ष है। शहरों, कस्बों यहाँ तक कि गाँवों में भी फलदार पेड़ों की संख्या इतनी कम हो गई है कि यह पेड़ हर गुजरते राही के लिए आकर्षण का केन्द्र है। गर्मियों में जब यह पेड़ पके सुनहरे बिल्व फलों अथवा ‍िबल्लों से लदा होता है तब तो इसकी छटा ‍िनराली ही होती है। वह गर्मी की एक शाम थी। कॉलोनी में पानी का सरकारी टैंकर अभी-अभी अफरा-तफरी मचा कर गया था। पानी की हायतौबा और खाली बालटियों की सखी टंकार ने हम लोगों की एक टोली को चर्चा का सूत्र थमा ‍िदया। पर्यावरण प्रेमी मित्रों के बीच बहस होने लगी, रीतते जलस्रोतों पर, धरती के गर्म होने पर पर्यावरण का नाजुक संतुलन ‍िबगड़ने पर। इस तरह के मसलों पर सुझाव देने और दोष मढ़ने दोनों का ही सिलसिला जारी था कि बहस कर रहे अतिथियों के साथ आया एक नन्हा बच्चा, जो अब तक आँगन में खेल रहा था, बड़ा उत्साहित हो भीतर दौड़ता हुआ आया और अपने पिता को बताने लगा, 'देखो पापा, यहाँ तो गेंद का पेड़ है, पेड़ पर कितनी सारी बॉल्स लगी हैं।' बच्चे के इस भोलेपन पर सब हँसने लगे तो वह शरमाकर बाहर चला गया। उसका आशय बिल्व पत्र से था। मगर बच्चे की बात ने एक ही बात याद दिला दी।

सत्तर-अस्सी के दशक तक के बच्चों के लिए खिलौने सचमुच पेड़ों पर लगते थे और वे खिलौने बैटरी से नहीं, कल्पनाशक्ति से चलते थे। यही नहीं, उस पूरी जीवनशैली में बहुत कुछ ऐसा था, जो बाद के दशकों में एंटी-मॉर्डन कहकर नकार दिया गया। मगर आज फिर सादगीपूर्ण एवं पर्यावरण सम्मत जीवनशैली की जरूरत महसूस की जाने लगी है। मोटा खाओ, मोटा पहनो, प्रकृति का सान्निध्य प्राप्त करो। हवा और धूप की बिजली बनाओ। चिड़ियाओं को बचाओ, साइकल चलाओ आदि नारे लगने लगे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में एक नजर पीछे डालें तो काफी ‍िनकट के अतीत में प्रकृति से करीबी, पर्यावरण रक्षा और सादगी के सूत्र ‍िमल जाएँगे।

साठ-सत्तर के दशक की स्कूली बच्चियाँ कनेर के फलों से खेला कारती थीं। वे 'पाँचे' कहलाते थे। कनेर के फल तोड़ने पर पतली लकड़ी जैसी पीली-सी सख्त गिरी ‍िनकला करती थी। इन गिरियों को लड़कियाँ इकट्‍ठा कर लेती थीं। इससे उन्होंने जो खेल रचा था वह किसी ब्रेन-जिम से कम नहीं था। पाँचे जमीन पर बिखेरना, एक हाथ से पाँचा उछालना, दूसरे से जमीन पर थपकी देना फिर हर पारी में मुट्‍ठी के पाँचों की संख्या बढ़ाते चलना। इसमें काफी एकाग्रता, फुर्ती, दृष्टि संतुलन, मुट्‍ठियाँ संभालने की दक्षता की जरूरत होती थी। पाँचे खेलती लड़कियों को हँसी भी बहुत आती थी, क्योंकि दक्षता की जरूरत के बावजूद क्लबों वाली औपचारिकता की वहाँ कोई जगह नहीं थी। मुफ्त के पाँचे, मुफ्त की ठिठौली। न किसी का अहसान चढ़े, न किसी का धन लगे। न धूल-धुआँ, न बिजली-बैटरी की जरूरत है।

इसी तरह इमली के बीच जिन्हें मालवी में 'चीँ' कहा जाता है, इन चींओं का भी बहुत मजेदार चौसर बनता था। घर के बाहर के ओटलों (चबूतरों) पर बच्चे चॉक या पेम से चौखाना खाका बनाते और उस पर चीओं की मोहरें रखकर बड़ा बुद्धिमत्तापूर्ण एक खेल 'अष्ट चें पे' खेलते थे। यह स्थानीय चौसर की ऐसी बिसात थी जिसे कहीं भी खींच लो, कभी भी मिटा दो। न प्रकृति को खतरा, न जेब पर वजन। आम की गुठली से बबूल के काँटे तक प्रकृति से जुड़ी हर चीज इन बच्चों की कल्पनाशक्ति के ‍िनशाने पर होती थी।

इन दिनों प्लास्टिक द्वारा पर्यावरण बिगड़ने का बड़ा शोर है। मगर धरती को कचराघर बनाने वाला यह प्लास्टिक सिर्फ फैक्टरियों से ही नहीं निकला है, हमारी बदली हुई जीवनशैली से भी निकला है। आज लाख अपीलें की जाएँ या उपदेश दिए जाएँ कि कागज की थैली का उपयोग करें, मगर प्लास्टिक लोगों को आसान लगती है। यह आदत में शुमार हो गई है। ऐसे में याद कीजिए उस जमाने के बाबूजी लोगों की कपड़े की वह थैली। वह थैली थी कि जादूगरी। तहों पर तहें करके छोटी-सी बना ली जाती और जेब में डाल ली जाती। सुबह नियम से खाली थैली जेब में लेकर ‍िनकले बाबूजी शाम को थैली में कुछ न कुछ भरकर ही लौटते। फल, सब्जी, जामुन, खिरनी, गजक या घर का सौदा कुछ भी। थैली वही, समान सदा अलग। सप्ताहांत में थैली धुल जाती, इस्तिरी कर ली जाती। थस तरह रोज-रोज हर सामान के लिए प्लास्टिक की थैली की जरूरत नहीं थी। कपड़ा पर्यावरण मित्र ही था। मगर धीरे-धीरे उस थैली से लोगों को गँवारूपन की बू आने लगी। वे इस थैली पर हँसने लगे और यह मित्र थैली गायब हो गई। इसकी जगह प्लास्टिक की चिकनी थैलियों ने ले ली। ये पर्यावरण को बिगाड़ने लगीं, मगर इसकी फूहड़ता पर कभी कोई नहीं हँसा ! उलटे उसकी पैरवी में तरह-तरह की दलीलें दी जाने लगीं।

इसी तरह एक और पर्यावरण मित्र प्रथा याद आती है, वह है पत्तलों में भोजन। ये पत्तों की बनी वे थाली-कटोरियाँ हैं, जो बायोडिग्रेडेबल है। खाओ और फेंक दो। मिट्‍टी में घुल-मिल जाएगी। आजकल भारत में शादी-ब्याह में ‍िजस गंदगी से प्लेटें मंजती-धुलती हैं और कीटाणु फैलाती हैं उसे देखते हुए 'यूज एंड थ्रो' पत्तलें अच्छी थीं। मगर जाने क्यों ये अच्छी भली पत्तलें तक एक दिन के आयोजनों से बाहर ठेल दी गईं। इन दोनों-पत्तलों जगह टेंट हाउस वालों की प्लेटें और प्लास्टिक की यूज एंड थ्रो प्लेटें आ गईं।

अभी-अभी विदेश में होने वाले एक फैशन शो के बारे में जानकारी मिली कि यह ऑर्गेनिक वस्त्रों का फैशन शो है। इसमें शुद्ध कपास से बने और वेजिटेबल डाई से रंगे कपड़े होंगे। रैंप पर खादी टाइप के भी कई शो हमारे यहाँ भी हो चुके हैं। इन दिनों फिल्मी सितारे जुवार, बाजरे, मोटे आटे की रोटी, ब्राउन राइस, ब्राउन ब्रेड खाते हैं। अपने फार्म हाउस में लोग ऑर्गेनिक उत्पाद उगाते हैं। धूप खाने समुद्र किनारे के पर्यटन स्थलों पर जाते हैं। पता नहीं तपती धरती ने प्रकृति की महिमा समझा दी है या पर्यवरण प्रेम जताना फैशन हो गया है, मगर जो भी हो जीवनशैली में पर्यावरण की रक्षा और प्रकृति से नजदीकी शामिल करना आज समय की माँग है। इस समय में जब सादगी सबसे बड़ा आडंबर बन कई हो, सचमुच की सादगी करना सचमुच बुद्धिमानी की बात होगी।

- निर्मला भुराड़िया