रविवार, 26 सितंबर 2010

'हम दो, हमारे नौ!'

एक मंदिर के सामने एक बच्ची एक पात्र में तेल में भीगी शनिदेव की मूर्ति लेकर खड़ी थी। हर आने-जाने वाले दर्शनार्थी के आगे वह अपना पात्र कर देती थी। जय शनि महाराज, जय शनि भगवान के उद्‍घोष के साथ ही 'पैसा चढ़ाओं' शनि भगवान सब अच्छा करेंगे, जैसा कोई रटा-रटाया वाक्य बोलती थी। मगर कोई पैसा दे तो पात्र वाला हाथ पीछे करके उल्टे हाथ की हथेली आगे कर देती।... लड़की की फ्रॉक फटी और मैली-कुचैली थी, पाँव में चप्पल नहीं थी। तेल प्रेमी ईश्वर के पात्र की उस वाहिका की त्वचा और सिर के बाल इतने रुखे थे ‍िक उन्हें वह लगातार खुजाती थी...! देखकर ऐसा लगा ‍िक इससे पूछा जाए ‍िक तुम कौन हो, कहाँ रहती हो, तुम्हारे माँ-बाप कौन हैं? उससे पूछा- क्यों बच्ची तुम पढ़ने नहीं जाती? उसने कहा, 'ऐं हेंऽऽ मास्टरनी रूपे भोत माँगती हैं।' बच्ची का आशय फीस से था। अच्छा तुम ये शनि महाराज लेकर चलती हो, तुम्हारी माँ क्या करती है? 'अंडे बेचती है' बच्ची ने सपाट सहजात से जवाब ‍िदया। उसे क्या पता कि अंडे बेचने और शनि महाराज को तेल चढ़ाने में कोई विरोधाभास है। उन्हें तो जो मिल जाए वही उनके लिए काम है। अगला प्रश्न, तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं...? खीं-खीं... वह खिसिया कर हँसती है कुछ कहती नहीं। जवाब शायद उसकी ‍िखसियानी हँसी में ही छुपा हैं- ‍िपताजी दारू पीकर घर में दंगा मचाते, धौंस जमाते होंगे और क्या? अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं क्योंकि यह आम ‍िकस्सा है। मगर अगले प्रश्न का जवाब थोड़ा अनुमानित होने के वाबजूद आसमान से धरती पर ‍िगराने वाला है। उससे पूछा- तुम कितने भाई-बहन हो तो उसने बेहिचक बताया 'नौ'। बाप रे! पूरे नौ! अब इस अज्ञान को क्या कहा जाए जिसका ‍िशकार हमारी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा है और हम उन्हें अपनी जनसंख्या मानते भी कहाँ हैं। सिनेमा और प्रचार माध्यमों को सूट-टाई वाले महानगरीय लोगों और लंदन, न्यूयॉर्क में बसे अप्रवासी भारतीयों की ‍िववाहेत्तर संबंधों आदि से उपजी समस्याओं की चिंता है। यह देश, उसके लोग, उनके सुख-दु:ख उनकी योजना में नहीं हैं।



याद ‍कीजिए फिल्म चोरी-चोरी का वह गीत, 'छोटी-सी ये अल्टन-पल्टन फौज है मेरे घर की, साथ हमारे तोप का गोला बात है फिर क्या डर की-ऑल लाइन क्लीयर...' यह ज्यादा बच्चे वाले एक माँ-बाप का मखौल उड़ाने वाला गीत था। माँ-बाप के रूप में जॉनी वॉकर और टुनटुन जैसे समर्थ कलाकारों ने उपहास को बिल्कुल गाढ़ा बनाकर प्रस्तुत किया था। इस तरह और भी ‍िफल्मों में साठ-सत्तर के दशक के आसपास मनोरंज में गूँथकर परिवार नियोजन के संदेश दिए जाते थे। जब तक टी.वी. सिर्फ सरकारी था वहाँ भी परिवार-नियोजन कार्यक्रम योजनाओं का ‍िहस्सा हुआ करता था। प्रचार-माध्यमों के ‍िनजीकरण के बाद भारतवर्ष के लोग उनकी जनता नहीं, उपभोक्ता की श्रेणी में आ गए। अत: परिवार नियोजन संबंधी चेतना के ‍िलए वहाँ कोई जगह नहीं रह गई। जबकि सिनेमा और टेलीविजन गहरा प्रभाव छोड़ने वाले सशक्त माध्यम हैं। लगो इनका जल्दी अनुसरण करते हैं। दृश्य-श्रव्य माध्यम बगैर पढ़ी-लिखी जनता में भी चेतना जगा सकते हैं। पोलियो के ‍निराकरण के ‍िलए जब अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय निवेदन करते हैं तो आम जनता पर इसका असर पड़ता है। यह उन लोगों के ग्लैमर का सकारात्मक उपयोग है। हाल ही में बालिका भ्रूण हत्या के ‍िवरोध में भी ‍अमिताभ की छवि का उपयोग किया गया है। परिवार-नियोजन के लिए भी ऐसा ही कुछ किया जाना चाहिए। यह भारतीय समाज की प्राथमिकता है। क्योंकि अज्ञान और जनसंख्या वृद्धि एक-दूसरे के आरी-बारी आते हैं। एक के साथ दूसरा आता है और अधिक जनसंख्या और गरीबी भी एक ही चक्र में गुँथे हैं। एक के साथ दूसरा है। इस दुष्चक्र को तोड़ना हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। प्रचार माध्यम यह गुहार सुनेंगे तब सुनेंगे। फिलहाल आम मध्यमवर्गीय गृहिणियों को यह जिम्मेदारी लेना चाहिए कि वे अपने संपर्कों में आने वाली निम्न आय वर्ग की बेपढ़ स्त्रियों में चेतना जगाने का प्रयास करें।



-निर्मला भुराड़िया

www.nirmalabhuradia.com

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