बुधवार, 22 सितंबर 2010

स्कूल बीमार हैं!

एक नामी-गिरामी अस्पताल से संबंधित एक बात कोई भुक्तभोगी बता रहा था ‍िक वहाँ मरणासन्न मरीजों और ठीक होने की उम्मीद न होने वाली बीमारियों के मरीजों को अधिकांशत: भर्ती नहीं ‍किया जाता! उनकी भर्ती को बहाने बनाकर टाल ‍िदया जाता है। कारण? कारण यह कि इससे अस्पताल का मोरटलिटी रेट अथवा मृत्युदर बढ़ जाती है और प्रतिष्ठा को धब्बा लगता है! है न आश्चर्य की बात। अस्पताल ही गंभीर बीमारों का इलाज न करेगा तो कौन करेगा? और प्रतिष्ठा की यह कौनसी परिभाषा है? गुडविल तो उस अस्पताल की होना चाहिए, जहाँ अच्छे से इलाज किया जाता हो। आँकड़ों पर गुडविल तौलने के परिणाम यही होते हैं।

अस्पताल ही क्यों, हमारे यहाँ के स्कूल भी इस बीमारी से ग्रस्त हैं। वे कागजती गुडविल चाहते हैं जो ‍िसर्फ सर्टिफिकेटों और आँकड़ों पर ‍िनर्भर हो। ठीक अस्पताल की ही तरह कई स्कूलों में पूर्व की कक्षाओं में सामान्य अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को आगे की कक्षाओं में प्रवेश देने पर आनाकानी की जाती है। कारण यह कि अच्छे-अच्छे विद्यार्थियों को ही प्रवेश देंगे तो ‍िरजल्ट अच्छा-अच्छा ही आएगा। हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा! सवाल यह है ‍िक क्या ‍िशक्षा और ‍िशक्षक का यह कार्य नहीं है ‍िक वह कमजोर का भी भविष्य सँवारे। बल्कि कमजोर का भविष्य सँवारने पर तो अौर भी अधिक ध्यान दें। मगर यह नहीं होता। कई स्कूलों में यह भी देखा जाता है ‍िक भर्ती की अर्जी देने वाले बच्चे के माँ-बाप ‍िकतने पढ़े हैं? उन्हें कितना आता है। तो क्या जो शिक्षा से वंचित रह गए हैं उनके बच्चे भी ‍िशक्षा से वंचित रहें? यह कौन सी नैतिकता है? लेकिन शिक्षा इन नैतिक दायित्वों से काफी दूर हो गई है। एक आदर्श ध्‍येय से अधिक व्यवसाय हो गई है। अत: आधुनिक विद्यालयीन परिदृश्य में शिक्षा शुद्ध व्यवसायियों के हाथ में खेल रही है। स्कूलों के प्रबंधक सिर्फ व्यवस्था ही नहीं देखते बल्कि स्कूलों के उन दैनंदिन व्यवहारों में भी दखल करते हैं, जो ‍िशक्षकों के हाथ में होना चाहिए। बच्चों के एडमिशन, शिक्षकों आदि की नियुक्ति में भी स्कूल प्रबंधन का एकमेव निर्णय चलता है। यदि ऐसा करने से गुणवत्ता बढ़ती होती तो बात अलग थी। मगर आज परिदृश्य यह है कि ‍नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद, सस्ती राजनीति आदि चलती है। स्कूल परिसरों में छुटभैया नेता घुस आए हैं। जिनकी अर्जियों पर एडमिशन ही नहीं होते, स्कॉलरशिप्स भी मिल जाती है! अन्य फायदे भी उन बच्चों को (प्रकारांतर से उनके माँ-बाप को) दिलवा ‍िदए जाते हैं, जिनकी नेताओं तक पहुँच होती है। वंचित वर्ग के सुपात्र रह जाते हैं, क्योंकि उनका कोई राजनीतिक आका नहीं होता। बेचारे शिक्षक मुँह फाड़े देखते रह जाते हैं, क्योंकि उन्हीं के क्षेत्र में उनकी कोई 'से' नहीं होती। और बच्चे पहला पाठ पढ़ते हैं ‍िक गुरु ब्रह्मा नहीं गुरु बेचारा है! पॉवर और मनी के दबदबे का खेल बच्चा यहीं से देखना शुरू कर देता है और नोटबुक में दर्ज कर लेता है 'स्कूल सरस्वती का मंदिर नहीं है।' दरअसल सरस्वती का मंदिर तो कहीं नहीं है!

गुडविल और आँकड़ों वाली बात पर पुन: लौटें तो प्रबंधकों का शिक्षकों पर यह दबाव भी रहता है कि स्कूल से ज्यादा से ज्यादा बच्चों की मेरिट आना चाहिए। प्रथम श्रेणी पास बच्चों का प्रतिशत फलाँ-फलाँ होना चाहिए। नहीं तो शिक्षकों से तलब किया जाएगा कि ऐसा कैसे हुआ? 'हमने तो आपको सब छूट दे रखी थी।' आशय यह कि टिपाओ चाहे परीक्षा पूर्व पेपर कबाड़ लाओ। येन-केन-प्रकारेण स्कूल का रिजल्ट चमकाओ। स्कूल की पढ़ाई का तरीका, व्यवस्था, अनुशासन, नैतिक शिक्षा, बच्चे का संपूर्ण विकास इसका कोई मतलब नहीं, न ही यह तलब ‍िकया गया है। यहाँ से बच्चे को एक और पाठ ‍िमलता है। बोर्ड परीक्षा में नकल करना बुरी बात नहीं, 'अपने स्कूल' के रिजल्ट का सवाल जो है! (अपनी बारी आए तो गुरुजी खुद यही करते हैं)।

गाँव-कस्बों के स्कूलों में तो 'मास टीपण' अभियान चलता है। गुरुजी ब्लैक बोर्ड पर लिखकर भी ‍िटपा सकते हैं। स्कूलों में बच्चों के सर्वांगीण विकास और नैतिक विकास पर तरह-तरह से कुल्हाड़ियाँ चलती हैं। जैसे झूठी उपस्थिति देना। शिक्षका का कक्षा में जैसे-तैसे कोई-सा भी पाठ निपटाकर बच्चों को अपना मोबाइल नंबर दे देना, ताकि वे उसके प्राइवेट कोचिंग में आकर 'ठीक से' पढ़ें! यानी मक्कारी का लेसन मुफ्त में। ठीक है कि अकादमिक उपलब्धियों का भी महत्व है। मगर क्या इस कीमत पर कि ‍िवद्यार्थी भाषा, गणित, विज्ञान, तर्क में प्रावीण्य को ताक पर रखकर सिर्फ ‍िडग्री और अंक जुटाने में लग जाए? उसके पास किसी कला, ‍िकसी खेल से संबंधित कोई गुण हो तो वह दबा ‍िदया जाए? संस्कृति का रौब मारने वाले भारतवर्ष में ऐसा सांस्कृतिक दमन क्यों? कई देशों में खेल व अन्य गतिविधियों के भी अंक होते हैं। फिर हमारे यहाँ एक विद्यार्थी को संपूर्ण व्यक्ति बनने देने में ये बाधाएँ क्यों? इस बारे में माता-पिता, शिक्षक, प्रबंधक, समाज सभी को विचार करना चाहिए।

- निर्मला भुराड़िया
www.nirmalabhuradia.com

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