बुधवार, 8 सितंबर 2010

कॉस्मिक न्यूट्रीशन

एक सज्जन कई साल अमेरिका रहे। अब कुछ समय से भारत के एक महानगर में रह रहे हैं। वहाँ वे किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्य करते हैं। सूट-टाई या ब्रांडेड कपड़े पहने जाना एक तरह से उनके आसपास के माहौल का अलिखित ‍िनयम है। पिछले ‍िदनों वे मध्यप्रदेश में अपने गृहनगर आए थे। बातों ही बातों में कहे लगे- 'मुझे तो मोटे ऊन का स्वेटर पहनने की बहुत इच्छा होती है।' इस पर उन्हें सुझाव दिया गया- 'तो वह आप खरीद सकते हैं, बाजार में मिल जाएगा।' इस पर उन सज्जन ने कहा- 'मैं जो चाहता हूँ वह बाजार में कहाँ मिलेगा। मुझे तो वैसा स्वेटर चाहिए जैसा बचपन में होता था माँ के हाथ का थोड़ा ढीला, थोड़ा आड़ा-तेढ़ा बुना हुआ। जिस पर से स्कूल की प्रार्थना सभा में से साथी ऊन खींच-खींचकर कॉपियों में इकट्‍ठा करते थे, एक-दूसरे की स्वेटर पर काँटे वाले बीज फेंका करते थे जो स्वेटर पर चिपक जाते थे...'

खैर यह सज्जन जो कह रहे थे, वह एक भूली हुई मिठास को याद करने से अधिक कुछ नहीं था। मगर एक बात महसूस हुई कि इन ‍िदनों 'मोटा खाओ-मोटा पहनो' जैसी बातें ‍िफर होने लगी हैं। हालाँकि ये बातें सादगी के दृष्टिकोण से न होती हों पर इस दृष्टिकोण से जरूर होने लगी हैं कि लोग अपरिष्कृत चीजों में स्वास्थ्य खोजने लगे हैं। लोग यह महसूस करने लगे हैं, जो कुछ प्रकृति से जुड़ा है वह जीवन को सौंधापन देता है।

इन ‍िदनों ग्लॉसी पत्रिकाओं के स्वास्थ्य स्तंभ ऐसे सुझावों से भरे पड़े हैं, जिनमें लोगों से पॉलिश किया हुआ चावल खाने के बजाए मोटा चावल खाने, परिष्कृत शकर न खाने, मैदे के सफेद ब्रेड के बजाए ब्राउन ब्रेड खाने की अपील की जाती है। जूस और कोल्ड ड्रिंक्स को नकारकर साबुत फलों को अपनाने पर जोर दिया जा रहा है। इन्हें 'मूड फूड' बताकर आधुनिक लोगों को बताया जा रहा है, छिलके और लुदगी सहित खाए जाने वाले फल उनके पेट और उनके 'मूड' के लिए ‍िकतने अच्छे हैं। इसी तरह, बाजरा, मक्का, गेहूँ आदि अन्न और दालें आधुनिक पोषण आहारियों की सुझाई 'फूड डायरियों' में सबसे ऊपर हैं। चोकर का 'विटामिन ई' फिल्मी सितारे चेहरे पर भी लगा रहे हैं और खा भी रहे हैं। इसी तरह की एक आधुनिक सौंदर्य-स्वास्थ्य सलाहकार ने तो धूप, हवा, रात्रिकालीन निद्रा को 'कॉस्मिक न्यूट्रीशन' की संज्ञा दी है। बाजार में ऐसे उपकरण भी बहुत आ गए हैं, जिससे व्यायाम करने के लिए कभी आपको घट्‍टी पीसने की एक्टिंग करना होती है, कभी दही बिलौने की तो कभी साइकल चलाने की।

तात्पर्य यही कि 'मोटा खाओ, मोटा पहनो और धमककर काम करो' वाली कहावत किसी भी युग में महत्वपूर्ण रहेगी। भले ही उसे कहने का ढंग और शब्दावली बदल जाए। अति कृत्रिमता और यांत्रिक जीवन की अधिकता अंतत: इंसान को रास नहीं आती। वह फिर अपने ढंग से प्रकृति की नजदीकी में आनंद के तत्व ढ़ूंढने लगता है। भले फिर वह सौंधी मिट्‍टी के खुशबू से बना सेंट खरीदना हो या तारों भरी रात में अलाव के आस-पास नाचना-गाना, कैंपफायर आयोजित करना।

- निर्मला भुराड़िया

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